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तप्तगृह / सर्ग 6 / केदारनाथ मिश्र 'प्रभात'

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जीवन के शून्य! तुम
इस विशाल विश्व में
सत्य एकमात्र हो
शून्य तत्पगृह का
प्रमाण इस बात का।
बीच गिरि-समूह के
बीच घोर निर्जन के
शून्य तत्पगृह का
है अतन्द्र अपने में
वन प्रतीक उस अखड
अन्त-हीन शून्य का
जो कि व्याप्त आदि से
व्योम में, समीरण में
अग्नि में, पयोनिधि में
कण-कण में धरती के
और इन्ही पाँचों का
स्थूल रूप जीवन है।

अश्रु और हास यही
साथी दो जीवन के।
हास कभी जीवन को
सौरभ-विभोर कर
फूलों के स्वप्न से
करता सिंगार है
और जब निष्ठुर यह
साथ छोड़ देता है
दीपक बन अश्रु तब
पथ दिखलाता है,
शीतल सनेह भरे
स्पर्श से समस्त भार
हरता है दुःख का
दुर्दिन की रात में।

किंतु बिम्बसार आज
दूर बहुत दोनों से,
हास गया कुशला के
संग और अश्रु को
प्रतिपल सजाती है
आग तप्तगृह
शेष रहा शून्य एक
आज वही राजा के
साथ-साथ चलता है
पलकों में पलता है
निर्धूम जलता है
जैसे आकाश-पिण्ड
जलता है मंद-मंद
ध्वंसावशेष पर।
आज इसी शून्य को
पाल हरे बिम्बसार
प्राणों के कम्प में
पालता समुद्र ज्यों
वड़वाग्नि ही तल में।
प्रिय है अतीव यह
साथी एकान्त का
जिसको मनुहारते
बिम्बसार साँसों से
गहरी उसाँसों से
पलकों की कोर से
हिय की हिलोर से।
और साथ उसको ले
घूम रहे चिंतन के
उस असीम लोक में
गत के मृदु छंद जहाँ
आगत के तार चूम
भरते अनागत की
वाणी में वेदना
आग और आँसू भी
भरते तूफान और
दह्यमान तेज-ताप
आग्नेय पर्वत का।

जाता है सूर्य चला
पार गिरि-माला के
क्लान्त-चरण, शेष हुई
राह एक दिन की।
चारों ओर फैली है
कम्प-भरी लालिमा,
मानो रण-क्षेत्र में
वीर निर्जीव पड़े
लाली लहू की लोल
अंचल ओढ़ाती ही।
आता पवन श्रान्त
मुक्त वातायन
देर तक फैले हुये
खेतों को लाँघ कर
साथ संदेश लिये
मिट्टी का मर्म-भरा
जिसकी हिलोर से
हिलती मलिन मूक
मिट्टी के दीपक की
करुण क्षीण वर्तिका।

चिंतन की मुद्रा में
बैठे मगधराज
देखते अनेक चित्र
और फिर सोचते

”श्रेणिय बिम्बसार
यौवन-मद में विभोर
एक दिन उमड़ा था
जैसे उमड़ता है
सिन्धु भीमनाद कर
शत सहस्त्र भीषण
उत्ताल लहरों को ले
एक दिन झंझा पर
दौड़ा था बिम्बसार
एक दिन लपटों में
कूदा था बिम्बसार,
एक दिन यौवन के
तेज का प्रतीक वह
मृत्यु को चुनौती दे
आगे बढ़ा था और
लाया था गर्व से
बाँध कर विजय को।

”वह था प्रतिशोध
क्षेमवित की पराजय का
सुभग शिलारोपण था

महान मगध-राज्य का
खण्डित अभिमान पर
गौरवमय अंग के।
हिंसा प्रतिशोध की
प्राण-शक्ति होती है,
और युद्ध-क्षेत्र में
बनती है चण्डिका।
तुष्ट तृप्त होती है
मानव के रक्त में
स्नान कर उमंग से।
जय का अभियान वह
बेसुध विभोर था
अंगवासियों का रक्त
पाकर वरदान में
और हुआ पूरा
नरमेघ-यज्ञ घोर वह
शीश गिरा कन्दुक-सा
कटकर जब भूमि पर
वीर ब्रह्मदत्त का,
पूरा संकल्प हुआ
मेरा कठोरतम।

”हिंसा का नग्न रूप
देखकर विरक्ति हुई
मूल्य देख दुःख हुआ
मानव के रक्त का
किन्तु मिटी लिपसा कब
राज्य के प्रसार की
चाह मिटी मन से कब
राजसी प्रभाव की?

”शाप-भरा लग्न वह
और उसी लग्न की
अग्निमयी छाया में
आई प्रवंचना
वासना अतृप्त आई
नए रूप धरकर
छलने संसर को
और सोचा मैंने कि
प्रकट हुई भावना
पावन उदार एक
निर्मल बन्धुत्व की।
अतएव संज्ञा दी
उसको दुलार की
प्यार की, सनेह की।
साक्षी विदेह, भद्र
तक्षशिला, वत्स और
साक्षी उज्जयिनी है
साक्षी वैशाली की
चित्रमयी कविता।

”हाय री प्रवंचने!
तेरे एक इंगित पर
नाचता मनुष्य है
बार-बार जीवन में
और यही क्लीवता
पृष्ठभूमि बनती है
पाप, अन्याय की
कलह, गृहदाह की
हत्या की, लूट की
धरती के वक्ष पर।

”कौन यहां माता है
पिता और पुत्र कौन
कौन यहाँ पत्नी है
और कौन मित्र है?
यह समस्त दृश्य-लोक
सृष्टि कामना की है
जिसका प्रत्येक कण
रूप घृण्य स्वार्थ का
कुचल निटुर पैरों से
स्वार्थ-भरी कामना
वासना की प्रेरणा
बुद्ध वही होता है
माया के विश्व में
उसकी ही जीत है
जीवन-संग्राम में
जीत वही लेता है
आगत, अनागत को।

”धन्य धन्य गौतम वह
राजपुत्र प्रतिभामय
गौरव स्ववंश का
गौरव समष्टि का
सोई यशोधरा
रति का सौन्दर्य और
रूप चाँदनी की चारु
यौवन नदी का ले
मद ले वसंत का
वक्ष पर धरे हैं दो
कलश पूर्ण रस से।
राहुल पास सोया है
मानो आदि शक्ति की
स्नेह-भरी गोद में
सोया हो चन्द्रमा
गौतम ने आँख भर
देखा उस दृश्य को
मोह बोला-‘सत्य यही
जीवन का देख ले’
बोल उठी वासना
तेरी प्रतीक्षा में
व्याकुल हो सो गई
रति अलसाई-सी
होठों के प्याले की
वारुणी बुला रही
लहरें उठाने को
अर्म्मिल विलास की
बोला संकल्प तब
रोक मत चरणों को
अविचल पग आगे बढ़़,
ऊँचा न व्योम बहुत
शिखरों पर निर्भय चढ़,
रश्मियाँ प्रकाशकी
अम्बर से रहीं कढ़
मुट्ठियों से भर ले
मानवता मुकुट में
और उन्हें मढ़ दे।’

”पल-भर में गौतम ने
बन्धन सब तोड़ दिए
वैभव अपार छोड़
छोड़ सम्पत्ति-सुख
छोड़ राज-पाट और
साज सब विलास के
छोड़ रूप-स्नेहमयी
जीवन की संगिनी
राहुल-सा पुत्र छोड़
भटका वन-वन में
ग्राम-ग्राम नगर-नगर
दिवस-रात अविराम
पाने को एक कण
जीवन के सत्य का।
तग-बलिदान से
निष्ठा-संकल्प से
देख लिया मूल सत्य
जीवन का उसने
और उस सत्य की
साधना के पथ में
होम अस्तित्व दिया
ज्योतिर्मय अपना
गौतम नमस्य है
गौतम प्रणम्य है,
गौतम है वन्दनीय!

”किंतु साम्राज्य की
लिप्सा का दास मैं
जितने कुकर्म किये
आज नाचते हैं सब
आँखों के सामने
मानो हों नाचते
प्रेत विविध रूप में
बेसुध विभोर रहा
वासना के रंग में
फिर भी न प्यास मिटी
तीव्रतम विलास की
जिसको बन्धुत्व कहा
वह था न शुद्ध प्रेम
प्रत्युत वह रूप था
कुटिल एक लिप्सा का
बोलती प्रवंचना,
आज वही ज्वाला में
शून्य तप्तगृह की
कहती है-”कोणक भी
मेरी पुजारी है
मेरे संकेत पर
वह भी है नाचता“

बिम्बसर उछल पड़े
टूटी हुई खाट से
बढकर विक्षिप्त-सा
द्वार चाहा खोलना
जर्जर शरीर की
शेष सारी शक्ति से
लौटे पर हार कर
और लगे झाँकने
मुक्त वातायन से
सम्मुख था गृद्धकूट
गौतम के स्पर्श से
पुलकित, पवित्र पूत।
फैली थी ग्रीष्म की
धूल-भरी चाँदनी
छाया-सी लगती थी
सोई हुई नगरी,
किंतु नहीं छाया भी
दीख पड़ी कोणक के
प्रस्तर-प्रासाद की
बोले वे इतना ही-
”बहुत देर हो गई
बहुत दूर चला गया
कोणक अबोध-सा
हाय-री प्रवंचने!

और कुछ अश्रु-कण
आँखों से चू पड़े!!