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तप्तगृह / सर्ग 11 / केदारनाथ मिश्र 'प्रभात'

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अम्बे! जगदम्बे अयि!
करुणा तुम्हारी ही
शेष रहती है एक
ग्रीष्म की सरिता-सी
जाती है सूख जब
करुणा मनुष्य की
रहती है शेष्ज्ञ एक
करुणा तुम्हारी ही
धरती जब धूल के
धूमिल इतिहास की
साँसों में देती है
चुपके-से बाँध हाय,
मागव के जीवन का
शून्य, ताप उसका!

मानव की करुणा का
दुःखद जब अन्त हुआ
अंक में कठोरतम
क्रूर तप्तगृह के
करुणा तुम्हारी ही
करुणामयि! शेष रही
कुशला के अश्रु में
उसके विषाद-जनित
शोक-तप्त मौन में

बैठी है सेवा की
गँूगी पुकार-सी
साथ इसी करुणा के
कुशला वैधव्य की
वाणी को रोक कर
शून्य शयन-कक्ष में,
बैठी है भाग्य के
चरणों की ठोकर से
ध्वस्त हुई रेखा-सी
जिसके समीप हाय,
जाने में स्वप्न भी
जाने क्या बार-बार
सोचते-विचारते।

पूनम का चन्द्रमा
चाँदनी बिखेरता
किन्तु नहीं स्निग्ध कांति
रस है उड़ेलती।
पलकें हैं बन्द और
बद्ध कर दोनों हैं
पत्र-हीन आनन पर
छाई गंभीरता
मानो पतझर की
संध्या के शून्य में
आरती जलाती हो
कोई निवेदिता
मानो प्रत्येक पल
घुल-घुलकर अग्नि में
बनती नीहार हो
चिंता की यामिनी!

पत्नी नरेश की
कुशल न आज है
आज वह माता है
माता ही केवल है।
स्मृति के उदास और
निर्जन प्रदेश में
आज पत्नीत्व धूलि-
कण है बटोरता
और मातृत्व रहा
झाँक उन्हीं आँखों से
जिनमें अमर्ष था
कौंध उठा एक दिन!

अकस्मात कोणक ने
कक्ष में प्रवेश किया
और देख माता को
एक ओर उन्मन-सा
चरणों में लोट गया
दौड़ बड़े वेग से।
कुशला अचंभित-सी
मौन रही पूर्ववत
किंतु जब कोणक के
आँसू से भींग गये
पाँव तब नेत्र लगे
उसके भी रोने

माता के अश्रु थे
मस्तक पर पुत्र के
बार-बार गिरते,
आँसू थे पुत्र के
करुणामय मातृ-पद
धोते विभोर हो,
माता के अश्रु में
बहता वैधव्य था
साथ-साथ बहती थी
धार वात्सल्य की
आँसू में पुत्र के
प्रश्न यही बार-बार
उठता था ज्वार-सा
प्यार पिता करते थे
हाय, मुझे कितना?“

पत्थर की प्रतिमा-सी
बैठी थी कुशला
चरणों में कोणक था
विह्वल हो लोटता,
मानो सजल नेत्र
बैठी तपस्या हो,
चरणों में नत-सिर हो
दंभ कुम्हलाया-सा
मानो गंभीर-सी
मौन क्षमा बैठी हो
सम्मुख हो द्रोह खड़ा
बेसुध-सा, हारा-सा
मानो सौन्दर्यमयी
सन्ध्या चुपचाप हो
सूर्य झुका लज्जा की
लाली से भींगकर
मनस्ताप धोता हो
आँसू की धार से।
आँसू की भाषा में
आँसू जब बोल चुके
आहों ने आहों का
जान लिया मर्म जब
प्रश्न जब मौन-सा
उत्तर में मौन के
व्याकुल विभोर हो
हर चुका अपने में
करुणा की ज्योति को
बोल उठा कोणक तब
प्रश्न के झकोर में-
”एक बार कह दो मां!
प्यार पिता करते थे
हाय, मुझे कितना?
मेरी निठुराइयाँ
सम्मुख तुम्हारे हैं
अब भी बिखेरती
सौ-सौ चिनगारियाँ
बार-बार देखकर
मेरे औद्धत्य के
काले कलंक को
काँप-काँप उठतीं तुम
लौ-समान दीपक को
किंतु एक बार कहो
प्यार पिता करते थे
हाय, मुझे कितना?

निश्चय ही प्रलयाग्नि-
दीपित तुम्हारे दृग
लपटों में चाहते
भस्म मुझे करना
कारण भी ज्ञात मुझे,
किंतु देवि! तुम तो हो
स्नेह-मूर्ति मंगल की
एक बार आज कहो
प्यार पिता करते थे
हाय, मुझे कितना?“

कातरता पुत्र की
सह न सकी कुशला
अंचल के दूध की
सुन पुकार बार-बार
द्रवित हुई, अपने को
अकस्मात हाथ उठे
और लगे प्यार से
कोणक की देह को
सुख से सहलाने
होठों पर कोणक के
गूँज उठा प्रश्न वही
”एकबार कह दो मां!
कह दो बस एक बार
प्यार पिता करते थे
हाय, मुझे कितना?“

भावों से भाव लगे
प्रतिपल टकराने,
भीषण संघर्ष था
कुशला अधीर थी
मन के प्राचीर सब
हिलते थे, जिस प्रकार
हिलती तूफान में
भग्न कुटी फूस की।
सारा अतीत था
अपना अंगार ले
मिटता-सा दीखता!

सूने आकाश में
ममता का चन्द्रमा
प्रकट हुआ फिर से
और ज्वार उसका
कुशला के मौन की
बीन लगा छेड़ने
माता के कण्ठ से
फूटी तब रागिनी

”प्यार पिता करते थे
और प्यार उनका था
अपने-सा, विश्व में
उसकी न पाई मिल
कोई भी उपमा!
सत्य है कि मैं हूँ मां
किन्तु मगधराज का
पुत्र-प्रेम जननी की
ममता से भारी था
वस्तुतः असीम था
पुत्र-प्रेम उनका।

”तुम अजातशत्रु हो
जनमे हो बनने को
क्रूर पितृहन्ता
उनको भविष्य की
बात यह ज्ञात थी
फिर भी न प्रेम घटा
हाय, एक कण भी।
भीषण प्रवृत्ति यही
हिंसक तुम्हारी जब
प्यास बनी गर्भ की
अपने शरीर का
रक्त मुझे पीने को
भूप ने सहर्ष दिया
कितना महान था
पुत्र-प्रेम उनका?“

”कहती हूँ सत्य मैं
इच्छा न मेरी थी
धरती पर छाँह पड़े
एक पल तुम्हारी
किन्तु मगधराज के
हठ की ही जीत हुई
हार गया निश्चय
प्रत्येक बार मेरा!
कहते थे-अपना ही
रक्त-मांस कोणक है
अपना ही प्राण है
उसके शरीर में
सब प्रकार प्यारा है
ज्योतिष की बात तो
होती है गल्प ही।
कोणक तो शोभा है
गौरव है, गर्व है
सारे मगध का
कहते थे बार-बार
पुलकाकुल स्वर में।“

कंठ अवरुद्ध हुआ
और रुकी कुशला;
किन्तु रोक भावों के
बढ़ने प्रवेग को
बोली वह-”दृश्य ही
बदल गया सारा
तुमने उठाया जो खड्ग
आज उसका
सम्मुख परिणाम है।
जननी तुम्हारी हूँ;
यद्यपि सुहाग-धन
तुमने नृशंस-सा
लूट लिया मेरा
देती तथापि मैं
ममता का स्नेह ही
बार-बार तुमको
निर्णय इतिहास का
जाने इतिहास ही

बीच जिस कलंक की
कालिख के आज तुम
लज्जित-से दीखते
उसके आधार में
स्वार्थ-नीति काली है
राजनीति कहती है
देवदत्त जिसको
स्वार्थ-नीति मदिरा है
लहरों पर जिसकी
सर्वनाश खेलता
जैसे है खेलता
ध्वंस साथ विष के
छलना है, करती है
प्यार कुविचार से
मत्सर से, द्वेष से
कण-कण में घोर घृणा
भाव वह भरती है
बोती है कुत्सा के
बीज घूम-घूम कर,
हिंसा-प्रवृत्ति को
प्रतिपल उभाड़ती
साथ लिये रहती है
प्रतिपल अमंगल ही
और शरण देती है
रौरव को मन में!

”सत्ता ही सब-कुछ है
ऐसा तो स्वार्थ-जनित
भावों के दास ही
मन में हैं सोचते।
सत्ता से श्रेष्ठ है
विश्व में मनुष्यता
जिसके स्वरूप की
शोभा पर रीझ कर
गौतम के नेत्र हैं
करुणा को देखते
जन-जन के नेत्र में
सत्ता का मोह नहीं
जीवन-भर छूटता
किन्तु ज्ञान जीवन को
अपने में लीन कर
अपने प्रकाश से
जीवन को पूर्ण कर
लिखता जो सत्य है
पूज्य वही मानव का।

”वत्स! सुनो, छोड़ो अब
घातक संकीर्णता
और चलो गौतम के
पुण्य-प्रेम-पथ पर
संघबद्ध होकर
एक यही मार्ग है
और इसी मार्ग में
मिलता कल्याण है
रक्त मगधराज का
पुत्र-प्रेम अब भी
जिसमें है बोलता
कहता पुकार कर-
”वत्स! सुनो, छोड़ो अब
घातक संकीर्णता
और चलो गौतम के
पुण्य-प्रेम-पथ पर
संघबद्ध होकर
एक यही मार्ग है
और इसी मार्ग में
मिलता कल्याण है
रक्त मगधराज का
पुत्र-प्रेम अब भी
जिसमें है बोलता
कहता पुकार कर-
‘वत्स, यही मार्ग है
प्यार करो इसको’।।“

इतना जब बोल कर
मौन हुई कुशला
कोणक ने धीरे-से
शीश तब उठाया
किंतु नहीं माता की
ओर एक बार भी
दृष्टि उठी उसकी
आँखे थीं सावन के
नीर-भरे शून्य-सी
और वह लगता था
तेज-हीन दीपक-सा!

ठहरा वह एक पल
और फिर बाहर की
ओर बढ़े उसके
पैर डगमग-से

बाहर सब ओर थी
छाँह देवदत्त की
और उस छाँह में
तप्तगृह रोता था
रीता है जिस प्रकार
खँडहर इतिहास का!