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अग्नि-कवि / केदारनाथ मिश्र 'प्रभात'

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करूँगा उथल-पुथल क्षण में!
सिंह-समान दहाडू़ँगा नवयुग के इस समरांगण में!

प्रलयंकर मैं हूँ विराट कवि
आग उगलता हुआ क्रान्ति-रवि;

दिव्य-शक्ति है मेरे शब्दों के अचूक-आकर्षण में
करूँगा उथल-पुथल क्षण में!

मैं न हूँ सरस-सलोना फूल!
मधुसूदन का चक्र-सुदर्शन मैं शिव का हूँ तीक्ष्ण-त्रिशूल

चिता-अग्नि की एक लहर हूँ
प्रलय-मेघ की घोर-घहर हूँ;

सर्वनाश हूँ मूर्तिमान मैं, विष हूँ, नहीं सुधा सुख-मूल
मैं न हूँ सरस-सलोना फूल!

फूँक भीषण रण-तूर्य महान!
घूमूँगा मैं कोने-कोने बना बवंडर प्रबल महान!

यौवन की ज्वाला लहरा कर
विजय-बैजयंती फहराकर;

माँ के चरणों में प्रणाम कर आज चढ़ाऊँगा बलिदान!
फूँक भीषण रण-तूर्य महान!

भाग जाओ तारक-मंडल!
मचा हुआ है मरूक्षेत्र का महाभयंकर कोलाहल!

परिवर्तन का चक्र चल रहा
क्रोध तड़प कर स्वयं जल रहा;

आवें दौड़ लक्ष्मण झटपट आज थामने पृथ्वी-तल!
भाग जाओ तारक-मंडल
13.7.28