सैनिक / केदारनाथ मिश्र 'प्रभात'
लिखी गई है बज्र-कलम से
मेरी जीवन-पुस्तक आह!
जिसके पृष्ट-पृष्ठ पर अगणित
बहे हुये हैं रक्त-प्रवाह!
आशा की प्रत्येक-लहर में
उमड़ रहा प्रचंड-तूफ़ान!
उतावली-सी अभिलाषाएँ
गातीं मृदु-स्वर से ‘बलिदान।’
तरुणी-विभीषिका है मेरी
चिर-सहचरी-सखी सुकुमार!
पहराता मैं असि-प्रिया को
नर-मुंडों का सुंदर-हार!
मेरे फौलादी-शरीर पर
होते प्राणांतक-आघात!
तो भी सदा नाचता रहता
होठों पर आनंद-प्रभात!
मैं न कभी कंपित होता सुन
वह विकराल तुपक-गर्जन!
हिल जाती है पर्वत-माला
थर्राते जिससे निर्जन!
शत्रु चलाते मुझे लक्ष्य कर
खड्ग और भीषण भाला!
पर निर्भीक घूमता रहता
मैं यौवन-मद-मतवाला!
मेरी राह रोक सकता है
बलशाली है ऐसा कौन?
मुझे देखकर अंतक-शंकर
खड़ा सोचने लगते मौन!
मुझे न विचलित करते, रण के
हाहाकार और चीत्कार!
मैं आगे बढ़ता विदीर्ण कर
घूम्र-धूल-पट भीमाकार!
उठती हुईं अग्नि की लपटें
देख, न मैं घबड़ाता हूँ!
प्रत्युत भौंहें चढ़ा क्रोध से
मैं कृपाण चमकाता हूँ!
दुष्टों को मैं मार, खून से
तुरत बुझाता माँ की प्यास!
मेरे इस अखंड-भुज-बल पर
बोल, न है किसको विश्वास?
प्रलयंकर-सा रूप बनाके
कर में ले नंगी-तलवार!
चलता हूँ चुपचाप ध्येय पर
कर असंख्य शोणित-पथ पार!