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वे पल / योगेन्द्र दत्त शर्मा

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छायाओं-से घेरे रहते
वे पल
जो साथ-साथ बोते!

चंदनी हवाओं ने
निंदियारे तालों को
झकझोरा
भीतर तक सिहर गई
मौन कमल-पांखुरी
छलक गया
छंद का झकोरा
फिर कोई आंख
डबडबाई
मौसम का गंध-कलश पीते!

गीतमुखी यादों के
भीगे अहसास
कसमसाये
दस्तक से चौंके
कुछ सतरंगी स्वप्न
मिलनातुर पंख
फड़फड़ाये

सुरमई धुंधलके पर
धूप-चित्र
तुमने यों बार-बार चीते!