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आहटें सुनें / योगेन्द्र दत्त शर्मा

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सूखने लगी घाटी मन की
आओ, फिर-से
आदिम गंध ही बुनें!

टेर रही है जाने कब से
छीजती हुई ठंडी छांह
सूनी-सी धूसर पगडंडी
फैलाये है अपनी बांह

सांसों से रिस गया हरापन
सहलायें फिर
बिसरे गीत को धुनें!

पानी पर तिरती परछाइयां
ठूंठ-तन झुके आधे पेड़
सरहद का दर्द झेलती हुई
कटे खेत की टूटी मेंड़

पल-दो पल याद के बहाने
चलो, उस हवा की भी
आहटें सुनें!

जड़ हुई समूची संवेदना
बोध पर उगी कोई कांस
सुन्न पड़ गई सारी चेतना
बर्फ-से जमे हैं अहसास

पथराये रिश्तों के बीच से
चलो, बर्फ में सोई
आग को चुनें!