भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

बंजर धरती पर हिरन / योगेन्द्र दत्त शर्मा

Kavita Kosh से
Lalit Kumar (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 13:31, 15 मार्च 2017 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=योगेन्द्र दत्त शर्मा |अनुवादक= |स...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

दृश्य धुंधले-धुंधले हो गये!
दृष्टियों की किरचें उड़ गईं
चमकते आईने खो गये!

जड़ों से उखड़-उखड़कर गिरे
पड़े आड़े-तिरछे सब पेड़
अजगरी कंेचुल ओढ़े पड़ी
कुलांचों वाली उम्र अधेड़

जगाकर सोई हुई उमंग
स्वप्नचिर-निद्रा में सो गये!

गुमशुदा चेहरों की पहचान
रंग हर आकृति का धुल गया
पर्त-दर-पर्त मानुषी गंध
भेद फिर लोगों का खुल गया

उगे बंजर धरती पर हिरन
तृषाकुल दो आंखें बो गये!

बबूलों वाले रिश्ते-नाम
रेत में धंसे हुए मस्तूल
नदी के कूल सिराये गये
वेणियों के मुरझाये फूल

न लौटे कभी छांह के पास
धूप में एक बार जो गये!