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बंजर धरती पर हिरन / योगेन्द्र दत्त शर्मा
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दृश्य धुंधले-धुंधले हो गये!
दृष्टियों की किरचें उड़ गईं
चमकते आईने खो गये!
जड़ों से उखड़-उखड़कर गिरे
पड़े आड़े-तिरछे सब पेड़
अजगरी कंेचुल ओढ़े पड़ी
कुलांचों वाली उम्र अधेड़
जगाकर सोई हुई उमंग
स्वप्नचिर-निद्रा में सो गये!
गुमशुदा चेहरों की पहचान
रंग हर आकृति का धुल गया
पर्त-दर-पर्त मानुषी गंध
भेद फिर लोगों का खुल गया
उगे बंजर धरती पर हिरन
तृषाकुल दो आंखें बो गये!
बबूलों वाले रिश्ते-नाम
रेत में धंसे हुए मस्तूल
नदी के कूल सिराये गये
वेणियों के मुरझाये फूल
न लौटे कभी छांह के पास
धूप में एक बार जो गये!