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विसंगति / योगेन्द्र दत्त शर्मा
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टूटकर गिरने लगे कंधे
अरे यह बोझ!
बंट रही
कहवाघरों में क्रांति
रेस्तरा में
मिट रही है भ्रांति
धुंध पीती हुई गलियों में
कर रहे हैं आंख के अंधे
सुखों की खोज!
साहबों की
चमचमाती कार
कर रही है
धूप का व्यापार
और ये पीले पड़े चेहरे
मिल नहीं पाते इन्हें धंधे
चुका है ओज!
धौंकनी से
गर्म निकली सांस
चुभ रही
सूखे गले में फांस
पेड़ से लटके हुए झूले
गर्दनों पर कस रहे फंदे
नये हर रोज!