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सृजन का स्वर-2 / विनोद शर्मा

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(अमरीकी कवि: ‘जां स्टार अण्टरमेयर’ की कविता: ‘सृजन का शब्द’ की अनुकृति। संदर्भ: भारतीय ज्ञानपीठ, काशी द्वारा 1960 में प्रकाशित कविता-संग्रह देशांतर, अनुवाद एवं संकलन: डॉ. धर्मवीर भारती)

प्रलय के बाद केवल मौन था
और इस मौन को टूटना अनिवार्य था
ताकि प्रलय के विनाश का विलाप
सृजन के स्वर में रूपांतरित हो
आरम्भ में मौन टूटा:
अंतरिक्ष में, विस्फोटों से
आसमान में, बिजली के आह्लाद,
मेघों के उल्लास से
और पृथ्वी पर, सागर के गर्जन,
झरने की कलकल और
चिड़ियों की चहचहाहट से

मगर न शोर, न कोई धमाका
और न कोई अन्य ध्वनि ही
रूपांतरित कर पाई विनाश के
विलाप को सृजन के स्वर में

यहां तक कि शिशु का रुदन,
उन्मुक्त मन की खिलखिलाहट,
और प्रेमी हृदय की धड़कन भी नहीं;

मौन को टूटना अनिवार्य था
मगर ध्वनि की सार्थकता थी
सृजन का स्वर बनने में

और तब मनुष्य ने संगीत का आविष्कार किया
ताकि हो सके ध्वनि की शब्दविहीन भाषा,
और अधिक सक्षम, अर्थमय और सम्प्रेष्णीय
और हो जाए अंततः वर्जित सेब को चखने का दंड,
आनन्द में रूपांतरित

और ऐसे हुआ रूपांतरित
मेघों का गर्जन, मेघ-मल्हार में
प्रलय के विनाश का विलाप
सृजन के स्वर में।