भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

दिल्ली-1984 / गिरधर राठी

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 16:08, 24 मई 2008 का अवतरण (New page: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार= गिरिधर राठी |संग्रह= निमित्त / गिरिधर राठी }} क्या तुमन...)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

क्या तुमने देखे धू-धू करते मकान?

हाँ मैं ने देखे ।

और शहर पर मंडराता धुआँ?

हाँ ।

क्या तुमने सुना शोर?

हाँ मैं ने सुना ।

भागते हुए हुजूम?

हाँ ।

और वे जो भाग नहीं सके?


नहीं \ कुछ दिनों बाद

देखे मैंने ढेर राख के

जिन में शायद दबी थीं कुछ हड्डियाँ

कुछ नर-कंकाल ।

फिर कुछ आँकड़े देखे

कुछ ब्यौरे सुने

चश्मदीद ।


उन दिनों मैं पिता की शरण में था

उस पिता की, जो सब का था

और उन की वसीयत में

खोज रहा था अपना हिस्सा