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सत्यता / कुमारेन्द्र सिंह सेंगर

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जिन्दगी के इस अनोखे ढ़ेर से
ऐ मानव
तू ढ़ूँड़ता क्या है?
सोचता है तू
चन्द सिक्कों को लेकर
यही सार है
तेरी जिन्दगी का।
पर सोच खुद
जिन्दगी का यथार्थ क्या है?
छिपा है
जिन्दगी के साये में
बस तड़पना
मानव मन का,
मचलना दिल का।
पाकर हर खुशी
फिर
तड़पता तू क्यों है?
सोच अब भी कि
तूने खोया क्या है?
तूने पाया क्या है?
खोया है तूने बहुत
पर
न पा सका कुछ भी,
न समझा इस सार को,
बस समेटने में लगा है
हर चीज जहाँ की।
सोच अब भी कि
तू लाया क्या है?
न रहा है साथ किसी के
न तेरे साथ रहेगा।
खुशी का यह पल बस
क्षण भर को रहेगा
और अन्त में,
तू भी मिल जायेगा खाक में,
फिर सोच कि
पाकर इतना सब
तुझे फायदा क्या है?