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तोता बहुत दुःखी है / विष्णुचन्द्र शर्मा

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”यहाँ क्या दुर्गाभसान का मेला है? या
यहाँ सजी हुई मूरत का घर जल रहा है?
मूरत क्या वाकई अकेले में डरती है?
डर कर क्या पूछती है: किसे तजूँ जीवन में?
नहीं है अपना कोई मममता भरे दिल में?”
तोता बस नदी पर उड़ता रहा।
जंगली झरबेरी पर बैठा रहा
तोता बस सोचता रहता:
”मूरत क्यों मेले में आती है?
मूरत क्यों पागलों-सी अपने को सजाती है?
मूरत क्यों मरण का तिहवार देखती रहती है?“
तोता बहुत दुखी है।

लालापंडित को कल अधमचंद बनिया ने बुलाकर
कहा: ”लालापंडित अब अपन काम-धाम तुम समेट लो!“
लालापंडित पिछले 25 सालों से अधमचंद बनिया की गद्दी के
दलाल हैं, मुंशी हैं, चरणपाल दास हैं।
तोता यहीं लालापंडित के घर का मेहमान है। पिंजरे के आसपास लालापंडित
की बेटी, बड़ा बेटा, माँ सहमे हुए बैठे हैं। सहमे हुए
चेहरों में आँखें भी काँप कर बार-बार लालापंडित को देखा करती है
खूँटी पर टंगे हुए कुर्ते को लालापंडित ने उतार कर पहना है
झोले से रुद्राक्ष की माला निकालकर गले में डाली है
सहमी हुई बेटी ने पूछा: ”जी! अब कहा है अधमू बाबू ने
आप आराम करें।“

लालापंडित ने झोले में रुद्राक्ष की माला उतार कर रख दी है
”-कैसे आराम करूँ? गद्दी में कौन है?
गल्ले की आढ़त और कपड़े की गाँठ का खाता कौन देखेगा?
लाला तो सभी को लापरवाह स्वारथ का साथी समझता है अपने सा!
मैं भला कच्चा रोकड़ कैसे नए मुंशी को सौंप दूँ!
मेरी ही आँखों में अधमचंद की उचंत की कुंजी रहती है।
कितनी बार दंगे में कितना दिया?
बायें नेता के बाद दायें अभिनेता को कितनी रकम दी है उचंत से?
लाला के दस पुश्त का खाता कैसे अब सौंप दूँ नए नए छोकरों को?“

लालापंडित अब घर में ही रहते हैं। झोले को सुबह ही
गंगा से लौटकर उठाते हैं
उठाकर खोजते हैं भुन्नसी ताली
बेटी को चीखकर बुलाते हैं: खाना नहीं बना है?
बेटी डरी-डरी कभी आती है आँगन में। माँ के पास बैठकर आरती उतारती है।
हार कर लालापंडित टोपी उतारते हैं। खूंटी पर टाँगते हैं झोला।
गंगा से लाल अड़हुल का फूल सर चढ़ाकर
बड़बड़ाते हैं: ‘घर कहीं गद्दी बन सकता है? कहा है ‘घर पर रहो’
घर में कौन कारूँ का खजाना गाड़ दिया है अधमू ने?
अधमू के खाते में ब्याज पर चढ़ाता रहा पूरी रकम।
पूरी रकम का खाता देखकर कल ही तो कहा था अधमू से
‘मेरा भी थोड़ा मूलधन का हिसाब जरा देख लो। लंबी रकम है
गाढ़ी कमाई की।’
अधमू ने भेजा था बैंक में। बैंक के आने पर यही कहता रहा:
‘-लालापंडित अब अवकाश लो। तुमसे काम होता है।’
बोलो भला मैं अपना मूलधन का हिसाब कैसे छोड़ दूँ।

तोता रोज-रोज देखा करता है लालापंडित का दुखद अंत।
गल कर हड्डी का ढाँचा रह गए हैं लालापंडित।
तीन बार अधमचंद बनिया से अपनी बकाया छह माह की तनख़ाह
माँगने गए थे गद्दी पर।
बीस बार कर्ज पर चढ़ायी अपनी पूँजी माँगने गए थे
अधमू के घर पर।
कभी ट्रक के पीछे लुढ़क कर गिरे थे सड़क पर।
कभी गद्दी के जीने पर मुँह के बल लुढ़के थे।
हर बार घर में बस हाहाकार लालापंडित को घेर कर चला करता था।
हर बार पागलपन में खोई रकम के कच्चे रोकड़ को
लालापंडित लिखा करते थे अकेले में।
कल अपनी छत से नीचे आ गए थे लालापंडित।
कल से अस्पताल में खामोश पड़े हैं लालापंडित।

तोता भला अधमचंद बनिया के भेजे की लोकरीति
कहाँ तक जानता है!
बेटी रोज-रोज तोते को अधमू की कुटिलता बताती है।
तोते को रोज-रोज माँ अधमू की कपट भरी कहानी सुनाती है।
तोता बहुत दुखी है।

माथे का पसीना पोंछ कर बेटे ने कहा है: ”जी“।
तोता अस्पताल से घर तक बस जीऽ जीऽ जीऽ की रट लगाता रहा।
बेटे ने कहा: ”भरोसा करो अपने बलबूते का।“
माँ ने कहा: ”राम सा साहब है भरोसे को।“
बेटी ने जी को कड़ा किया और तोते को पिंजड़े से निकालकर
पूछा: ‘अबकी दशहरे में मेले में जाएंगे।
दुर्गाभसान का इस बार जश्न हम गंगा में बजरे पर मनाएंगे।“

तोता बस जीऽ जीऽ जीऽ की रट लगाता रहा।

जी ने बेहोशी में आँखें खोलकर पूछा: अधमू क्या
तीस हजार रकम दे गया है? मूलधन के साथ छह माह का वेतन!
तीस हजार केसे लील जाने दूँ अधमू को!
सुनती हो!
तीस हजार अधमू दे गया है! नीचे के बक्से में अभी रखना रकम!
जमाना बड़ा नंगा है। नंगा मैं कितने साल रहा हूं तवे पर!
सुनती हो!
जहाँ बैठता हूँ वहीं अंग-अंग जलता है
सुनती हो!
जहाँ-जहाँ जाता हूँ वहीं-वहीं ताप से देह झुलस जाती है।
अधमू की गद्दी में कल तक तो खस की टट्टी लगा करती थी।
सुनती हो। अधमू की गद्दी में आग लग गई है।
सुनती हो! रकम जरा बचाकर खरचना।
ढलती हुई उम्र है कब पक कर गिर जाऊँ।
सुनती हो!
बेटी का हाथ इसी रकम से पीला इसी चैत में कर देना!
सुनती हो...
तोता ही सुनता रहा।
बेटी को छाती से दबाए माँ फर्श पर सुबकती रही।
बेटा बहुत देर तक झोले और टोपी और कुर्ते के तेल से मैले
दाग देखता रहा।

तोता बस घाट तक जीऽ जीऽ जीऽ रटता रहा।
बेटी के कंधे पर चोंच घिस कर बोला: ”दुर्गाभसान में लोग
पूरी जिंदगी का मूलधन खोते हैं?
जी का सजा हुआ घर गंगा में धँसकर कुछ राहत ही पाएगा!
अकेला एक पागल ही मेले में खोएगा!
जी की सूरत क्या कभी माँगेगी अपना हक?“
तोता बस गंगा में देखता है।
जंगली झरबेरी में रहता है।

-जानवरतंत्र