Last modified on 19 मार्च 2017, at 10:33

बिहारी सतसई / भाग 6 / बिहारी

Lalit Kumar (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 10:33, 19 मार्च 2017 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=बिहारी |अनुवादक= |संग्रह=बिहारी स...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

खेलन सिखए अलि भलैं चतुर अहेरी मार।
कानन-चारी नैन-मृग नागर नरनु सिकार॥51॥

अलि = सखी। अहेरी = शिकारी। मार = कामदेव। कानन-चारी = कानों तक आने-जानेवाले, वन में विहारनेवाले। नागर = चतुर, शहरी। नरनु = पुरुषों का।

ऐ सखी! चतुर शिकारी कामदेव ने कानों तक आने-जानेवाले (वन में विहार करने वाले) तुम्हारे नेत्र-रूपी हिरनों को चतुर नागरिक पुरुषों का शिकार करना भली भाँति सिखलाया है।

नोट: हिरनों से आदमियों का शिकार कराना-वह भी ठेठ देहाती गँवार आदमियों का नहीं, छैल-चिकनिये चतुर नागरिकों का!-कवि की अनूठी रसिकता प्रदर्शित करता है।


अर तैं टरत न बर परे दई मरक मनु मैन।
होड़ा-होड़ा बढ़ि चले चितु चतुराई नैन॥52॥

अर तैं = हठ से। टरत = टरते हैं, डिगते हैं। बर परे = बल पकड़ता है। दई = दिया हो। मरक = बढ़ावा। मैन = कामदेव। होड़ा-होड़ी = बाजी लगाकर, शर्त बदकर, प्रतिद्वन्द्विता, प्रतिस्पर्धा।

(नायिका के) चित्त की चतुराई और उसकी आँखें बाजी लगाकर बढ़ चली हैं-जिस प्रकार आँखें बड़ी-बड़ी होती जा रही हैं उसी प्रकार उसकी चतुराई भी बढ़ी चली जाती है। वे (चतुराई और आँखें) अपने हठ से नहीं डिगतीं, वरन् (वह हठ) और भी बल पकड़ता जाता है, मानो कामदेव ने उन्हें (इस प्रतिद्वन्द्विता के लिए) बढ़ा दे दिया हो, ललकार दिया हो।


सायक सम मायक नयन रँगे त्रिविध रँग गात।
झखौ बिलखि दुरि जात जल लखि जलजात लजात॥53॥

सायक = सायंकाल। मायक = माया जाननेवाला, जादूगर। त्रिबिध = तीन प्रकार। गात = शरीर। झखौ = मछली भी। विलखि = संकुचित या दुखी होकर। जलजात = कमल।

संध्याकाल के समान मायावी आँखें अपनी देहों को तीन रंगों में रँगे हुई हैं। उन्हें देखकर मछली भी संकुचित हो जल में छिप जाती है और कमल लज्जित हो जाते हैं।

नोट - नेत्रों में लाल, काले और उजले रंग होते हैं। देखिये -

अमिय हलाहल मद भरे, स्वेत स्याम रतनार।
जियत मरत झुकि-झुकि गिरत, जिहि चितबत इक बार॥


जोग-जुगुति सिरघए सबै मनो महामुनि मैनु।
चाहतु पिय-अद्वैतता काननु सेवतु नैनु॥54॥

जोग = मिलन, योग। मनो = मानों। जुगुतु = युक्ति, उपाय। मैनु = कामदेव। पिय = प्रीतम, ईश्वर। अद्वैतत = मिलन, अभेद-भाव, अभिन्नता। काननु = कानों, जंगल। सिखये = सिखा दिया।

मानो महातपस्वी कामदेव ने योग (मिलन) की सारी युक्तियाँ बता दी हैं। इसीसे (उस नायिका के नेत्र) प्रीतम (ईश्वर) से सदा मिले रहने के लिए कानों तक बढ़ आये हैं, (वियोग-रहित अनन्त मिलने के लिए) वन-सेवन कर रहे हैं।


वर जीते सर मैन के ऐसे देखे मैं न।
हरिनी के नैनानु तैं हरि नीके ए नैन॥55॥

बर = बलपूर्वक। मैन = कामदेव। मैं न = मैं नहीं।

इन नेत्रों ने कामदेव के (अचूक) बाणों को भी बलपूर्वक जीत लिया है। मैंने तो ऐसे नेत्र (कभी) देखे ही नहीं। हे कृष्ण! हरिणियों के नैन से भी ये नेत्र सुन्दर हैं।

नोट - खंजन कंज न सरि लहै बलि अलि को न बखान।
एनी की अँखिपान ते नीकी अँखियान। - शृंगार-सतसई


संगति दोपु लगै सबनु कहे ति साँचे बैन।
कुटिल बंक भु्रब संग भए कुटिल बंक गति नैन॥56॥

भु्रव = भँवें, भौंहें। कुटिल गति = टेढ़ी चालवाली। ति = सचमुच।

संगति का दोष सबको लगता है, सचमुच यह बात सच्ची कही गई है। तिरछी टेढ़ी भँवों की संगति से आँखें भी टेढ़ी और तिरछी चालवाली हो गई!

आन = दूसरा। विषम = भयंकर, कठोर। ईछन = ईक्षण = नेत्र। तीछन = तीक्ष्ण = तेज, चोखे, कँटीले।

लगते हैं आँखों में, बेधत हैं हृदय को और व्याकुल करते हैं अन्य अंगों को-सारे शरीर को! ये तुम्हारे नेत्र-रूपी तीखे-चोखे बाण सबसे भयंकर हैं।


झूठे जानि न संग्रहे मन मुँह निकसे बैन।
याही तैं मानहु किये बातनु कौं बिधि सैन॥58॥

सैन = इशारा। बैन = वचन। संग्रहै = संचय करता है। याही तैं = इसी लिए। बिधि = ब्रह्मा।

मुँह से निकले हुए वचनों को झूठा समझकर मन संग्रह नहीं करता- प्रमाण नहीं मानता। मानो इसी कारण (हृदय की) बातें करने के लिए ब्रह्मा ने नेत्रों के इशारे बनाये।


फिरि फिरि दौरत देखियत निचले नैंकु रहे न।
ए कजरारे कौन पर करत कजाकी नैन॥59॥

निचले = निश्चल, स्थिर। नेकु = जरा भी। कजरारे = काजल लगाये हुए। कजाकी = (कजा = मृत्यु) हत्यारापन, लुटेरापन, लूटमार।

बार-बार दौड़ते हुए दीख पड़ते हैं, जरा भी स्थिर नहीं रहते। (तुम्हारे) ये काजल लगे हुए नेत्र किसपर डाक डाल रहे हैं- किसकी हत्या करने के लिए इधर-उधर दौड़ लगा रहे हैं?


खरी भीरहू भेदिकै कितहू ह्वै उत जाइ।
फिरै डीठि जुरि डीठि सों सबकी डीठि बचाइ॥60॥

खरी = भारी। भेदिकै = पार करके। कितहू ह्वै = किसी ओर से होकर। उत = वहाँ। डीठि = नजर। जुरि = मिलकर। डीठि बचाइ = आँखें बचाकर।

भारी भीड़ को भी भेद कर, और किसी ओर से भी वहाँ (नायक के पास) पहुँचकर, नायिका की नजर, सबकी आँखें बचा, उसकी (नायिका की) नजर से मिल कर, फिर (साफ कन्नी काटकर) लौट आती है।