भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

बिहारी सतसई / भाग 24 / बिहारी

Kavita Kosh से
Lalit Kumar (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 12:00, 19 मार्च 2017 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=बिहारी |अनुवादक= |संग्रह=बिहारी स...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

जौ लौं लखौं न कुल-कथा तौ लौं ठिक ठहराइ।
देखैं आवत देखिही क्यौं हूँ रह्यौ न जाइ॥231॥

लौं = तक। लखौं = देखूँ। कुल-कथा = कुल की कथा, सतीत्व आदि की बातें। देखिही = देखने से ही। क्यौं हूँ = किसी प्रकार।

जब तक (उन्हें) नहीं देखती हूँ, तभी तक कुल की कथा ठीक ठहरती है-अच्छी जँचती है, (किन्तु जब) वे देखने में आते हैं- वे दिखलाई पड़ते हैं (तब) देखे बिना किसी प्रकार नहीं रहा जाता-बरबस उन्हें देखना ही पड़ता है।


बन-तन कौं निकसत लसत हँसत हँसत इत आइ।
दृग-खंजन गहि लै चल्यौ चितवनि-चैंपु लगाइ॥232॥

बन-तन = बन की ओर। इत = इधर। दृग = आँख। चितवनि = नजर, दृष्टि। चैंपु = लासा, गोंद।

वन की ओर निकलते समय सुशोभित हो (बन-ठन) कर हँसते हँसते इधर आये और दृष्टि-रूपी लासा लगा (मेरी) आँख-रूपी खंजन को पकड़कर लीे चले!


चितु-बितु बचतु न हरत हठि लालन-दृग बरजोर।
सावधान के बटपरा ए जागत के चोर॥233॥

चितु = मन। बितु = धन। लालन = कृष्ण। दृग = आँखें। बरजोर = जबरदस्त। बटपरा = बटमार, राहजन, ठग।

मन-रूपी धन नहीं बचता। हठ करके (वे) छीन लते हैं। कृष्ण के नेत्र बड़े जबरदस्त हैं। ये चौकन्ने आदमी के लिए तो (भूल-भुलैया में डालकर लूटनेवाले) ठग हैं, और लगे हुए के लिए (लुक-छिपकर चुरानेवाले) चोर हैं।

नोट- जो चौकन्ने हैं वे नहीं ठगे ज सकते, और जो जगे हैं उनके घर में चोरी नहीं हो सकती। किन्तु नेत्र ऐसे जबरदस्त हैं कि चौकन्ने को ठगते और जगे हुए (के माल) को चुराते हैं। कितनी अच्छी कल्पना है!


सुरति न ताल रु तान की उठ्यौ न सुरु ठहराइ।
एरी रागु बिगारि गौ बैरी बोलु सुनाइ॥234॥

सुरति = सुधि। बिगारि गौ = बिगाड़ गया।

ताल और तान की सुधि नहीं रही। उठाया हुआ सुर भी नहीं ठहरता। अरी (सखी)! वह बैरी (नायक) बोली सुनाकर (सारा) राग बिगाड़ गया।

नोट - नायिका गा रही थी। उसी समय उस ओर से नायक गुजरा और कुछ बोलकर चला गया। उसी पर नायिका का यह कथन है।


ये काँटे मो पाँइ गड़ि लीन्ही मरत जिवाइ।
प्रीति जतावतु भीत सौं मीतु जु काढ्यो आइ॥235॥

मो = मेरे । जतावतु = प्रकट करते हुए।

अरे काँटे! (तूने) मेरे पैर में गड़कर (मुझे) मरने से जिला लिया, (क्योंकि) प्रीति प्रकट करते हुए डरते-डरते प्रीतम ने उसे (तुझे) आकर निकाला।

नोट - ‘प्रीतम’ ने इसका उर्दू अनुवाद यों किया है-

मेरे इस खार-पा ने मुझको मरने से बचाया है।
वो गुलरू खींचने को अज रहे शफकत जो आया है॥


जात सयान अयान ह्वै वे ठग काहि ठगैं न।
को ललचाइ न लाल के लखि ललचौहैं नैन॥236॥

ह्वै जात = हो जाता है, बन जाता है। सयान = चतुर। अयान = अजान, अज्ञान, मूर्ख। काहि = किसे। ललचौंहैं = ललचानेवाले।

चतुर भी मूर्ख बन जाते हैं। वे ठग किसे नहीं ठगते। श्रीकृष्ण के (उन) लुभावने नेत्रों को देखकर कौन नहीं ललचता?


जसु अपजसु देखत नहीं देखत साँवल गात।
कहा करौं लालच-भरे चपल नैन चलि जात॥237॥

साँवल = श्यामल। कहा = क्या। चपल = चंचल।

यश-अपयश (कुछ) नहीं देखते-किस काम के करने से यश होगा और किस काम के करने से अपयश, यह नहीं बिचारते; देखते हैं (केवल श्रीकृष्ण का) साँवला शरीर। क्या करूँ, लालच से भरे (मेरे) चंचल नयन (बरबस उनके पास) चले जाते हैं।


नख-सिख-रूप भरे खरे तौ माँगत मुसकानि।
तजत न लोचन लालची ए ललचौंहीं बानि॥238॥

नख-सिख = नख से शिखा तक, ऐड़ी से चोटी तक, समूचा शरीर। खरे = अत्यन्त, पूर्ण रूप से। ललचौंहीं बानि = ललचाने की आदत।

(श्रीकृष्ण के) नख-शिख सौंदर्य से मेरे नेत्र पूर्ण रूप से भरे हैं, तो भी मुसकुराहट माँगते हैं-श्रीकृष्ण के सम्पूर्ण शरीर की अपार शोभा देखकर भी तृप्त नहीं होते, उनकी मुसकुराहट देखना चाहते हैं। (मेरे) लालची नेत्र (अपनी) यह ललचाने की आदत छोड़ते ही नहीं।


छ्वै छिगुनी पहुँचो गिलत, अति दीनता दिखाइ।
बलि बावन की ब्यौंतु सुनि को बलि तुम्हैं पत्याइ॥239॥

छ्वै = छूकर। छिगुनी = कनिष्ठा अँगुली। गिलत = पकड़ लेना। बलि = पाताल के दैत्यराज। ब्यौंतु = छलमय ढंग। बलि = बलैया। पत्याइ = प्रतीति करे, विश्वास करे।

अत्यन्त दीनता दिखाकर छिगुनी छूते ही पहुँचा पकड़ लेते हो। किन्तु बलि और बावन की कहानी सुनकर, बलैया, तुम्हें कौन पतिआय-तुम्हारा विश्वास कौन करे?

नोट - राधिका से कृष्ण कोई मामूली चीज माँग रहे हैं। राधिका झिड़कती है-नहीं, ऐसा होने का नहीं, यह देते ही तुम दूसरी चीज माँगने लगोगे; यो होते-होते मेरे सारे शरीर पर ही कब्जा कर लोगे; बलि से भी तुमने महज तीन डेग जमीन माँगी थी, और उसका सर्वस्व ही हर लिया; अँगुली पकड़कर पहुँचा पकड़ना तो तुम्हारी आदत ही है; अतएव, हटो, दूर हो।

दोहा संख्या 140 यहाँ जोड़ना बाकि है