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बिहारी सतसई / भाग 36 / बिहारी

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दृग मिहचत मृगलोचनी भज्यौ उलटि भुज बाथ।
जानि गई तिय नाथ के हाथ परस ही हाथ॥351॥

दृग = आँख। मिहचत = मूँदना। मृगलोचनी = वह स्त्री जिसके नेत्र मृग के नेत्र-से बड़े-बड़े हों। बाथ = अँकवार। परस = स्पर्श।

आँखें मूँदते ही-ज्यों ही प्रीतम ने पीछे से आकर उसकी आँखें बन्द कीं-त्यों ही उस मृगलोचनी ने (अपनी) भुजाएँ उलटकर उसे (निस्संकोच) अँकवार में भर लिया। (क्योंकि) हाथों के स्पर्श होते ही युवती जान गई कि (ये) प्रीतम के ही हाथ हैं।


प्रीतम दृग मिहचत प्रिया पानि-परस सुखु पाइ।
जानि पिछानि अजान लौं नैंकु न होति जनाइ॥352॥

पानि-परस = पाणि-स्पर्श, हाथ का स्पर्श। पिछानि = पहचानकर। अज्ञान = अश्र, अनभिज्ञ। लौं = समान। नैंकु = जरा, तनिक। न होति जनाइ = प्रकट नहीं करता, परिचय नहीं बतलाता।

प्रिय (नायिका) द्वारा आँखों के बन्द किये जाने पर (उसके कोमल) हाथों के स्पर्श का सुख पाकर प्रीतम (उसे भली भाँति) जान और पहचानकर भी अज्ञान के समान तनिक प्रकट नहीं होता (यह प्रकट नहीं करता कि तू कौन है, क्योंकि कर-स्पर्श जन्य सुख मिल रहा है।)


कर मुँदरी की आरसी प्रतिबिम्बित प्यौ पाइ।
पीठ दियैं निधरक लखै इकटक डीठि लगाइ॥353॥

मुँदरी = अँगूठी। आरसी = दर्पण, नगीना। प्यौ = पिया, प्रीतम। पीठ दियैं = मुँह फेरकर बैठी हुई। निधरक = बेधरक, स्वच्छन्दता से।

अपने हाथ की अँगूठी के (उज्वल) नगीने में प्रीतम का प्रतिबिम्ब देख (वह नायिका, प्रीतम की ओर) पीठ करके एकटक दृष्टि लगाकर (उस नगीने में झलकती हुई प्रीतम-छबि को) बेधड़क देख रही है-नगीने में प्रतिबिम्बित प्रीतम की मूर्त्ति देखकर ही प्रिय-दर्शन का आनन्द लूट रही है।

नोट - नायिका बैठी थी, नायक चुपचाप आकर उसके पीछे खड़ा हो गया। उसी समय का वर्णन है। ‘रामचरित-मानस’ में भी इसी प्रकार का एक वर्णन है-

निज-पानि-मनि महँ देखि प्रति-मूरति सु कृपानिधान की।
चालति न भुज-बल्ली-बिलोकनि बिरह-बस-भइ जानकी॥


मैं मिसहा सोयौ समुझि मुँह चूम्यौ ढिग जाइ।
हँस्यौ खिस्यानी गल रह्यौ रहा गरैं लपटाइ॥354॥

मिसहा = मिस करने वाला, बहानेबाज, छली। ढिग = निकट। खिस्यानी = लज्जित हो गई। गल गह्यौ = गलबहियाँ डाल दी। गरे = गले से।

मैंने उस छलिये को सोया हुआ जान निकट जाकर उसका मुँह चूमा। इतने ही में वह (जगा होने के कारण) हँस पड़ा, मैं लज्जित हो गई, उसने गलबाहीं डाल दी। (तो हार-दाँव मैं भी) उसके गले से लिपट गई।


मुँहु उघारि पिउ लखि रह्यौ रह्यौ न गौ मिस-सैन।
फरके ओठ उठे पुलक गए उघरि जुरि नैन॥355॥

उघारि = खोलकर। मिस-सैन = बहानेबाजी की नींद, बनावटी सोना (शयन)। पुलक = रोमांच। जुरि = मिलना।

मुँह उघारकर-मुँह पर से आँचल हटाकर-प्रीतम देख रहा था, अतः उस (नायिका) से झूठ-मूठ सोया न गया-आँखें मूँदकर जो सोने का बहाना किये हुए थी, सो वैसी न रह सकी। (पहले) ओठ फड़कने लगे (फिर) रोमांच उठ आये (और अन्त में) आँखें खुलकर (नायक की आँखों से) मिल गई।


बतरस-लालच लाल की मुरली धरी लुकाइ।
सौंह करै भौंहनु हँसै दैन कहैं नटि जाइ॥356॥

बतरस = बातचीत का आनन्द। लुकाइ धरी = छिपाकर रक्खा। सौंह = शपथ। नटि जाइ = नाहीं (इनकार) कर देती है।

बातचीत का मजा लेने के लोभ से श्रीकृष्ण की मुरली छिपाकर रख दी। (अब श्रीकृष्ण के माँगने पर) शपथ खाती है, भौंह से हँसती है (भौंहों को नचा-नचाकर प्रसन्नता जताती है), देने को कहती है देने पर तैयार होती है, (और पुनः) नाहीं कर देती है।


नैंकु उतै उठि बैठियै कहा रहे गहि गेहु।
छुटी जाति नहँ दी छिनकु महँदी सूकन देहु॥357॥

उतै = उधर। गहि = पकड़े। छुटी जाति = धुली या धुली जाती है। नहँ दी = नखों में दी या लगाई हुई। छिनकु = एक क्षण।

जरा उधर (अलग) उठकर बैठो। क्या घर को पकड़े रहते हो; क्या सदा घर में बैठे (घुसे) रहते हो? (देखो, तुम्हारे निकट रहने से प्रेमावेश के पसीने के कारण इसके) नँह में लगाई गई (मेहँदी) छुटी जाती है, एक क्षण के लिए भी तो इस मेहँदी को सूखने दो।


बाम तमासो करि रही बिबस बारुनी सेइ।
झुकति हँसति हँसि हँसि झुकति झुकि झुकि हँसि हँसि देइ॥358॥

बाम = युवती स्त्री। तमासो = तमाशा, भावभंगी। बारुनी = मदिरा। सेइ = सेवन कर, पीकर। झुकि-झुकि = लचक के साथ गिर-गिरकर।

शराब पीकर बेबस हो वह युवती तमाशा कर रही है-विचित्र हावभाव दिखा रही है। (नशे के झोंक में) झुकती (लड़खड़ाकर गिरती) है, हँसती है, (फिर) हँस हँसकर झुकती और झुक-झुककर हँस-हँस (खिलखिला) पड़ती है।


हँसि-हँसि हेरति नवल तिय मद के मद उमदाति।
बलकि-बलकि बोलति बचन ललकि ललकि लपटाति॥359॥

हेरति = देखती है। मद के मद = शराब के नशे में। उमदाति = झूमकर, देखती है। बलकि-बलकि = उबल-उबलकर, उत्तेजित हो-होकर।

शराब के नशे में वह उन्मादिनी (मस्तानी) नवयुवती हँस-हँसकर देखती है। उमंग से भर-भरकर (अंटसंट) बातें करती है, और ललक-ललककर (उत्कंठापूर्वक) लिपट जाती है।


खलित बचन अधखुलित दृग ललित स्वेद-कन जोति।
अरुन बदन छबि मदन की खरी छबीली होति॥360॥

खलित = स्खलित, स्फुट, अस्पष्ट। स्वेद-कन = पसीने की बूँदें। अरुन = लाल। खरी = अत्यन्त। मद छकी = शराब के नशे में चूर।

अस्पष्ट बातें, अधुखली आँखें, (शरीर में) पसीनों के सुन्दर कणों की ज्योति और गुल्लाला चेहरे की शोभा- (इन लक्षणों से युक्त वह नायिका) कामदेव की-सी शोभावाली अत्यन्त सुन्दरी हो जाती है।