भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

बिहारी सतसई / भाग 39 / बिहारी

Kavita Kosh से
Lalit Kumar (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 12:35, 19 मार्च 2017 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=बिहारी |अनुवादक= |संग्रह=बिहारी स...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

कियौ जु चिबुक उठाइकै कम्पित कर भरतार।
टेढ़ीयै टेढ़ी फिरति टेढ़ैं तिलक लिलार॥381॥

चिबुक = ठुड्डी। कर = हाथ। भरतार = पति। तिलक = टीका। टेढ़ीयै टैढ़ी फिरति = ऐंठती हुई ही घूमती फिरती है। लिलार = ललाट।

(प्रेमावेश से) काँपते हुए हाथों से पति ने जो ठुड्डी उठाकर (टीका) कर दिया, सो ललाट में उस टेढ़ी टीका को ही लगाये हुए वह टेढ़ी-ही-टेढ़ी बनी फिरती है-घमंड में ऐंठती हुई चलती है।


वेई गड़ि गाड़ैं परीं उपट्यौ हारु हियैं न।
आन्यौ मोरि मतंगु-मनु मारि गुरेरनु मैन॥382॥

गाड़ि = गड़कर, गड़ने से। गाड़ैं = गड्ढे। उपट्यौ = गड़कर गहरा दाग उखड़ आना। आन्यौ मोरि = मोड़ लाया। मतंगु = मतवाला हाथी। मनु = मन। गुरेरनु = गुलेल, गुलेती। मैंन = कामदेव।

कामदेव गुलेलों से मार-मारकर तुम्हारे मन रूपी मतवाले हाथी को इस ओर मोड़ (फेर) लाया है, उन्हीं (गुलेल की गोलियों) के गड़ने से ये गड्ढे़ पड़ गये हैं। (दूसरी स्त्री के साथ समागम करते समय) उसका हार तुम्हारे हृदय में नहीं उपटा है-(ये गड्ढे हार की मणियों के गड़ने से नहीं बने हैं।)

नोट - नायक दूसरी स्त्री के साथ विहार करके आया है। नायिका उपालम्भ देती है। अगले कई दोहों में ऐसे उपालम्भ मिलेंगे।


पलनु पीक अंजनु अधर धरे महाबरु भाल।
आजु मिले सु भली करी भले बने हौं लाल॥383॥

पलनु = पलकों में। अधर = ओठ। भाल = ललाट।

पलकों में (पान की) पीक है- भरत-रात कहीं दूसरी स्त्री के साथ जगे हो, उसीकी लाली है। अधरों पर अंजन लगा है-किसी मृगनैनी के कजरारे नयनों को चूमा है, उन्हीं का अंजन लग गया है और ललाट पर महावर धारण किये हुए हो-किसी मानिनी को पैरों पड़कर मनाया है, उसीका महावर लग गया है। आज (इस बाने से) मिले हो, सो अच्छा ही किया है (क्योंकि) हे लाल! (आज तुम) बड़े अच्छे बने हो-आज का तुम्हारा यह रूप बहुत बढ़िया दीख पड़ता है!


गहकि गाँसु औरै गहै रहे अधकहे बैन।
देखि खिसौंहैं पिय नयन किए रिसौंहैं नैन॥384॥

गहकि = क्रोधित होकर। गाँसु = वैमनस्य, अनख। अधकहे बैन = अधूरे वचन। खिसौंहैं = लज्जित। रिसौंहैं = रोषयुक्त।

क्रोधित होकर अधिक शत्रुता पकड़ ली- खूब उत्तेजित हो गई। आधे कहे हुए वचन मुख में ही रह गये। प्रीतम की लज्जित आँखें देखकर (उन्हें भर-रात दूसरी स्त्री के संग रहा समझकर, नायिका ने) अपनी आँखें रोषयुक्त कर लीं।


तेह तरेरौ त्यौरु करि कत करियत दृग लोल।
लीक नहीं यह पीक की सु्रति-मनि-झलक कपोल॥385॥

तेह = क्रोध। तरेरौ त्यौरु करि = त्यौरियाँ चढ़ाकर। लोल = चंचल। लीक = रेखा। सु्रति-मनि = कर्ण-भूषण की मणि। कपोल = गाल।

क्रोध में त्यौरियाँ चढ़ाकर आँखें क्यों चंचल कर रही हो? गालों पर यह पीक की रेखा नहीं है-किसी दूसरे ने चुम्बन किया है, उसके अधरों की लाली नहीं है (वरन्) कर्ण-भूषण की मणि की (लाल) झलक (प्रतिबिम्ब) है। दर्पणोज्ज्वल कपोलों में कर्णफूल-मणि की अरुण आभा प्रतिफलित हो रही है।


बाल कहा लाली भई लोइन कोइनु माँह।
लाल तुम्हारे दृगनु की परी दृगनु मैं छाँह॥386॥

लोइन = आँखें। कोइनु = आँखों के भीतर का उजला हिस्सा। माँह = में। दृगनु = आँखें। छाँह = छाया।

हे बाले! तुम्हारी आँखों के कोयों में लाली क्यों छा गई है? हे लाल! तुम्हारी आँखों की छाया ही मेरी आँखों में पड़ गई है-(तुम जो रात-भर किसी कामिनी के पास जगकर अपनी आँखें लाल-लाल बना लाये हो, उन्हीं की छाया मेरी आँखों में पड़ी है!)

नोट-नायिका ने परस्त्री-संगी नायक को देखते ही क्रुद्ध होकर आँखें लाल कर ली हैं। नायक इसका कारण पूछता है। नायिका अनुकूल जवाब देती है। बड़ी अनोखी सूझ है।


तरुन कोकनद बरन बर भए अरुन निसि जागि।
वाही कैं अनुराग दृग रहे मनो अनुरागि॥387॥

तरुन = नवीन, विकसित। कोकनद = लाल कमल। बरन = रंग। अरुन = लाल। अनुरागि रहे = रँग रहे।

रात-भर जगने से नये लाल कमल के सुन्दर रंग के समान नेत्र लाल हो गये हैं मानो उसी (अन्य स्त्री) के प्रेम में आपके नेत्र अनुरंजित हो रहे हैं-रँग गये हैं।


केसर केसरि-कुसुम के रहे अंग लपटाइ।
लगे जानि नख अनखुली कत बोलति अनखाइ॥388॥

केसर = पराग-तन्तु (जो लाल पतले डोरे के समान होता है), किंजल्क। अनखुली = अन खाने वाली, क्रोधिता।

केसर के फूल के पराग-तन्तु (नायक के) शरीर से लिपट रहे हैं। अरी क्रोधिता! उसे (दूसरी स्त्री के) नख लगा जानकर-परस्त्री-समागम के समय का नख-क्षत समझकर-तू क्यों अनखा (क्रोध से झुँझला) कर बोल रही है?


सदन सदन के फिरन की सद न छुटै हरिराइ।
रुचै तितै बिहरत फिरौ कत बिदरत उरु आइ॥389॥

सदन = घर। सद = आदत। हरिराइ = श्रीकृष्णचन्द्र। रुचै = भावे, नीक लगे, अच्छा जँचे। तितै = वहाँ। बिहरत फिरौ = मौज करते फिरो। बिदरत = विदीर्ण करते हो। उरु = हृदय। आइ = आकर।

हे कृष्णचन्द्र (तुम्हारी) घर-घर फिरने की आदत नहीं छूटती? खैर, जहाँ मन भावे, वहाँ विहरते फिरो। (किन्तु) मेरे पास आकर (मेरी) छाती क्यों विदीर्ण करते हो? (तुम्हें देख और तुम्हारी करतूत याद कर मेरी छाती फटने लगती है।)


पट कै ढिग कत ढाँपियत सोभित सुभग सुबेखु।
हद रद-छद छबि देत यह सद रद-छद की रेखु॥390॥

पट = कपड़ा। कै = करके। ढिग = निकट। सुवेखु = सुन्दर रूप से। रद-छद = ओठों। छबि = शोभा। सद = सद्यःकाल का, तुरत का। रद-छद = ओठों पर दाँत का घाव। रेख = रेखा, लकीर।

कपड़े निकट करके क्यों ढक रहे हो? सुभग और सुन्दर रूप से तो शोभ रहा है! दाँतों के घाव की ताजी रेखा से यह अधर बेहद शोभा दे रहा है-तुरत ही किसी स्त्री ने तुम्हारे अधर का चुम्बन करते समय दाँत गड़ाये हैं, जिसका चिह्न अत्यन्त शोभ रहा है।