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बिहारी सतसई / भाग 44 / बिहारी

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दोऊ आधकाई भरे एकै गौं गहराइ।
कौनु मनावै को मनै मानै मन गहराइ॥431॥

गौं = घात। गहराई = अड़ना, डटना। मानै = मान ही में।

दोनों ही अधिकाई से मरे हैं-एक दूसरे से बढ़े-चढ़े हैं (और दोनों) एक ही घात पर अड़े हुए हैं-(वे सोचते हैं कि वह मनावेगी, और यह सोचती है कि वे मनावेंगे)। फिर कौन किसको मनावे और कौन किससे माने? (शायद) मान ही में दोनों की मति ठहरती है-दोनों को मान ही पसन्द है।


लग्यौ सुमनु ह्वैहै सुफलु आतप-रोसु निवारि।
वारो वारी आपनी साींचि सुहृदता-वारि॥432॥

सुमन = (1) सुन्दर मन (2) फूल। सुफल = (1) सफलता (2) सुन्दर फल। आतप = धूप, घास। रोस = रोष = क्रोध। बारी = (1) अनुभवहीन बालिका (2)मँजरी हुई। बारी = (1) पारी, माँज (2) वाटिका, फुलवारी। सुहृदता = प्रेम, सहृदयता। बारि = पानी।

(जब) सुन्दर मन (रूपी फूल) लगा है, (तब) सफलता (रूपी सुन्दर फल) होगी ही। अतः क्रोध-रूपी धूप को निवारण कर अपनी इस मँजरी हुई वाटिका में प्रेम-रूपी जल छिड़क-अथवा, अपनी पारी आने पर दिल खोलकर नायक से मिल।


गह्यो अबोलौ बोलि प्यौ आपुहिं पठै वसीठि।
दीठि चुराई दुहुँनु की लखि सकुचौंही दीठि॥433॥

आपुहिं = स्वयं ही। गह्यो अबोलौ = मौन धारण कर लिया। बोलि = बुलाकर। बसीठि = दूती। दीठि = नजर। सकुचौंही = लजीली।

स्वयं दूती भेज प्रीतम को बुलाकर (उसके आने पर) मौन धारण कर लिया। (दूती और प्रीतम) दोनों की लजीली आँखों को देखकर (यह समझ कि दोनों ने मिलकर रतिक्रीड़ा की है, क्रोध में आ) उसने, अपनी नजर चुरा ली-नायक से आँखें तक न मिलाईं।


मानु करत बरजति न हौं उलटि दिवावति सौंह।
करी रिसौंहीं जाहिंगी सहज हँसौंहीं भौंह॥434॥

बरजति = बरजना, मना करना। सौंह = शपथ। रिसौंहीं = रोषयुक्त, टेढ़ी। सहज = स्वभाविक। हँसौंहीं = हँसोड़, विकसित, प्रसन्नता-सूचक।

मान करने से मैं मना नहीं करती, (वरन्) उलटे मैं शपथ दिलाती हूँ (कि तू अवश्य मान कर; किन्तु कृपा कर यह तो बता कि क्या तुझसे) ये स्वाभाविक हँसोड़ भौंहैं रोषयुक्त (बंक) की जा सकेंगी?


खरी पातरी कान की कौनु वहाऊ बानि।
आक-कली न रली करै अली अली जिय जानि॥435॥

खरी = अत्यन्त। बहाऊ = बहा ले जानेवाली, बहकाऊ। आक = अकवन। रली करै = विहार करे। अली = सखी। अली = भौंरा।

तुम कान की अत्यन्त पतली हो-जो कोई चुगली कर देता है, सुन लेती हो। यह कौन-सी बहकाऊ आदत है? सखी! यह बात हृदय से जान लो कि भौंरा अकवन की कली के साथ विहार नहीं करता-(तुम-सी तन्वंगी तरुणी को छोड़कर अन्य काली-कलूटी के पास वह रसिक नायक नहीं जा सकता।)


रुख रूखी मिस रोष मुख कहति रुखौंहैं बैन।
रूखे कैसैं होत ए नेह चीकने नैन॥436॥

रुख = चेष्टा। मिस बहाना। रुखौंहैं = रूखी-सूखी, कर्कश। नेह- चीकने = (1) स्नेह-स्निग्ध, प्रेम-रस में पगे (2) चेल से चीकने बने।

रूखी चेष्टा से क्रोध का बहाना कर मुख से रूखी बातें कहती है; किन्तु प्रेम से पगे ये नैंन कैसे रूखे हों?


सौंहैं हूँ हेर्‌यौ न तैं केती द्याई सौंह।
ए हो क्यौं बैठी किए ऐंठी-ग्वैंठी भौंह॥437॥

सौंहैं = सम्मुख। हेरîौ = देखा। द्याई = दिलाई। सौंह = शपथ, कसम। ए हो = अरी। ऐंठो-ग्वैंठी = टेढ़ी-मेढ़ी, बंकिम।

कितनी भी कसमें दिलाईं; किन्तु तूने सामने न देखा-मेरी ओर न ताका। अरी, यों भौंहों को टेढ़ी-मेढ़ी करके क्यों बैठी है?


ए री यह तेरी दई क्यौं हूँ प्रकृति न जाइ।
नेह-भरे ही राखियैं तउ रूखियै लखाइ॥438॥

प्रकृति = स्वभाव। लखाई = दीख पड़ना। नेह = (1) प्रेम (2) तेल।

अरी! हाय री दई! यह तेरा स्वभाव किसी प्रकार नहीं बदलता। नेह से भरे (हृदय में) रखने पर भी तू रूखी दीख पड़ती है-नीरस (क्रुद्ध) ही मालूम पड़ती है।


बिधि बिधि कौन करै टरै नहीं परे हूँ पान।
चितै कितै तैं लै धर्‌यौ इतौं इतैं तनु मान॥439॥

बिधि = ब्रह्मा। टरै = निकले, दूर हो। पान = पैरों। चितै = देखो। कितै = कहाँ से। इतौं = इतना। इतैं = इतने।

पैरों पड़ने से भी (तेरा मान) दूर नहीं होता। (अब) हे विधाता, किस विधान से यह दूर होगा? देख, इतने-से (छोटे) शरीर में तूने इतना (बड़ा) मान कहाँ से लेकर रख लिया है?


तो रस राँच्यौ आन-बस कहैं कुटिल-मति कूर।
जीभ निबौरी क्यौं लगै वौरी चाखि अँगूर॥440॥

रस = प्रेम। राँच्यौ = अनुरक्त है। आन-बस = परवश। कूर = क्रूर, निर्दय। निबौरी = नीम। लगैं = आसक्त हो। बौरी = पगली।

(प्रीतम तो) तुम्हारे ही प्रेम में पगा है। (जो उसे) दूसरे के वश में बतलाते हैं, वे कुटिल-बुद्धि और निर्दय हैं। अरी पगली! जीभ अंगूर चखकर नीम पर किस प्रकार अनुरक्त होगी-(तुम्हारे इस सुन्दर रूप के आगे उसे अन्य स्त्री कैसे पसंद आयेगी?)