लखि गुरुजन बिच कमल सौं सीसु छुवायौ स्याम।
हरि-सनमुख करि आरसी हियैं लगाई बाम॥451॥
गुरुजन = श्रेष्ठ पुरुष, माता-पिता आदि। सौं = से। आरसी = आईना। बाम = बामा, युवती स्त्री।
(उसे) गुरुजनों के बीच में देखकर श्रीकृष्ण ने अपना सिर कमल से छुलाया (अर्थात्-हे कमलनयने! अभिवादन करता हूँ) इस पर उस स्त्री (राधिका) ने दर्पण को श्रीकृष्ण के सम्मुख करके हृदय से लगाया (अर्थात्-इसी दर्पण के समान मेरे निर्मल हृदय में भी तुम्हारा प्रतिबिम्ब विराज रहा है)।
मनु न मनावन कौं करै देतु रुठाइ रुठाइ।
कौतुक लाग्यौ प्यौ प्रिया खिझहूँ रिझवति जाइ॥452॥
कौतुक = विनोद, मनोरंजन। लागै = निमित्त। खिझहूँ = खीझ (झुँझला) कर ही। रिझवति जाइ = प्रसन्न करती जाती है।
(प्रियतमा के रूठने की भावभंगी पर मुग्ध होने के कारण प्रीतम को प्रिया के) मनाने का मन नहीं करता, (अतएव) वह बार-बार उसे रूठा देता है। (इधर) प्रीतम के कौतुक के लिए प्रियतमा भी (झूठमूठ अधिकाधिक) खीझकर ही उसे रिझाती जाती है।
सकत न तुव ताते वचन मो रस कौ रस खोइ।
खिन-खिन औटे खीर लौं खरौ सवादिलु होइ॥453॥
ताते = (1) जली-कटी (2) गरम। रस = प्रेम। रस = (1) स्वाद (2) पानी। खिन-खिन = क्षण-क्षण। खीर लौं = (क्षीर) दूध की तरह।
तुम्हारी जली-कटी बातें मेरे प्रेम रस को खो (सोख या सुखा) नहीं सकती-नष्ट नहीं कर सकतीं। (वह तो इन तप्त वचनों से) क्षण-क्षण (अधिकाधिक) औंटे हुए दूध के समान और भी अधिक स्वादिष्ट होता जाता है।
खरैं अदब इठलाहटो उर उपजावति त्रासु।
दुसह संक विष कौ करै जैसैं सोंठि मिठासु॥454॥
खरैं = अत्यंत। अदब = शिष्टता। इठलाहटी = ऐंठ भी। त्रास = डर। दुसह = कठोर। सोंठि मिठासु = सोंठ में मिठास आ जाने पर वह विषैली हो जाती है, खाने से दस्त-कै और सिर-दर्द होने लगता है।
(प्यारी का) अदब के साथ इठलाना भी हृदय में भय उत्पन्न करता है। जिस प्रकार सोंठ की मिठास (सोंठ का स्वाभाविक स्वाद तीता है, अतएव उसकी मिठास) विष की कठिन शंका पैदा करती है।
राति द्यौस हौंसै रहति मान न ठिकु ठहराइ।
जेतौ औगुन ढूँढ़ियै गुनै हाथ परि जाइ॥455॥
हौसै रहति = हौसला ही बना रहता है। ठिकु न ठहराइ = ठीक नहीं जँचता। हाथ परि जाइ = हाथ लग (मिल) जाते हैं।
रात-दिन उत्सुकता बनी रहती है (कि मान करूँ), किन्तु मान ठीक नहीं जँचता। (क्योंकि मान करने के बहाने के लिए) जितने ही अवगुण उसमें ढूँढ़ती हूँ, उतने ही गुणों (पर) हाथ पड़ जाते हैं।
नोट - कविवर ‘रहीम’ की नायिका कहती है- ”करत न हिय अपरधबा सपने पीय, मान करन की बेरियाँ रहि गइ हीय।“
सतर भौंह रूखे वचन करति कठिनु मनु नीठि।
कहा करौं ह्वै जाति हरि हेरि हँसौंहीं डीठि॥456॥
सतर = तिरछी। नीठि = मुश्किल से। कहा = क्या। हेरि = देखकर। हँसौंहीं = हँसीयुक्त, प्रफुल्ल।
(मान करने की गरज से) मुश्किल से भौंहैं तिरछी, वचन रूखे और मन कठोर करती हूँ, (किन्तु) क्या करूँ, श्रीकृष्ण को देखते ही दृष्टि विकसित हो जाती है- आँखें हँस पड़ती हैं! (फिर मान कैसे हो?)
मो ही कौ छुटि मान गौ देखत ही ब्रजराज।
रही घरिक लौं मान-सी मान करे की लाज॥457॥
मो = मेरे। ही = हृदय। छुटि गौ = छूट गया। ब्रजराज = श्रीकृष्ण। घरिक = घड़ी+एक = एक घड़ी। मान-सी = मान के समान।
श्रीकृष्ण को देखते ही मेरे हृदय का मान छूट गया। हाँ, उस मान के समान मान करने की लाज एक घड़ी तक अवश्य रही-(एक घड़ी तक इस लाज में ठिठकी रही कि ऐसा मान नाहक क्यों किया, जो निभ न सका।)
दहैं निगोड़े नैन ए गहैं न चेत अचेत।
हौं कसु कै रिसहे करौं ए निसिखे हँसि देत॥458॥
चेत न गहैं = होश नहीं सँभालते। अचेत = बेहोश। कसु कै = कसकर, चेष्टा करके। रिसहे = रोषयुक्त। निसिखे = अशिक्षित, मूर्ख।
ये निगोड़े नैन जल जायँ। ये बेहोश कुछ भी होश नहीं सँभालते। मैं कसकर-बड़ी चेष्टा से-इन्हें रोषयुक्त बनाती हूँ, और ये मूर्ख हँस देते हैं।
तुहूँ कहति हौं आपु हूँ समुझति सबै सयानु।
लखि मोहनु जौ मनु रहै तौ मनु राखौं मानु॥459॥
आपु हूँ = स्वयं भी। सयानु = चतुराई की बातें, चातुरी।
तू भी कहती है और मैं स्वयं भी सब चातुरी समझती हूँ। किन्तु मोहन को देखकर जो मन स्थिर रह सके, तभी तो मन में मान रक्खूँ? (उन्हें देखकर मन ही नहीं स्थिर रहता, फिर मान कैसे करूँ?)
मोहिं लजावत निलज ए हुलसि मिलत सब गात।
भानु-उदै की ओस लौं मानु न जानति जात॥460॥
हुलसि = लालसा से भरकर। भानु = सूर्य। मानु = मान, गर्व।
(मेरे मान करने पर भी) ये सारे निर्लज्ज अंग (भुजाएँ, हृदय, आँखें, कपोल आदि) ललककर (उन्हें देखते ही) मिल जाते हैं, और मुझे लज्जित कर देते हैं। (सो क्या कहूँ) सूर्योदय (के बाद) की ओस के समान मान नहीं जान पड़ता। (समझ में नहीं आता, कैसे गायब हो जाता है।)