बिहारी सतसई / भाग 52 / बिहारी
कौन सुनै कासौं कहौं सुरति बिसारी नाह।
बदाबदी ज्यौ लेत हैं ए बदरा बदराह॥511॥
सुरति = स्मृति, याद, सुधि। बदाबदी = शर्त बाँधकर। ज्यौ लेत हैं = जान मारते हैं। बदरा = बादल। बदराह = कुमार्गी, बदमाश।
कौन सुनता है, किससे कहूँ। प्रीतम ने सुधि भुला दी। ये बदमाश बादल बाजी लगाकर जान ले रहे हैं-शर्त लगाकर प्राण लेने पर तुले हैं (इनसे रक्षा कौन करे?)
औरै भाँति भएऽब ए चौसरु चंदनु चंदु।
पति बिनु अति पारतु बिपति मारतु मारुत मंदु॥512॥
भएऽब = भये अब, अब हुए। चौसरु = चार लड़ियों की मोती-माला। चंदनु = श्रीखण्ड। बिपति पारतु = दुःख देते हैं। मारुत = हवा।
मोती की चौलरी, चंदन और चन्द्रमा, ये सब अब और ही भाँति के हो गये-कुछ विचित्र-से हो गये। प्रीतम के बिना ये सब अत्यन्त दुःख देते हैं और मंद-मंद हवा तो मारे ही डालती है।
नैंकु न झुरसी-बिरह-झर नेह-लता कुम्हिलाति।
नित-नित होति हरी-हरी खरी झालरति जाति॥513॥
नैंकु = जरा, तनिक। झुरसी = झुलसकर। झर = ज्वाला, लपट। खरी = अधिक, खूब। झालरति = फैलती या सघन पल्लवों से भरी जाती है।
प्रेम-रूपी लतिका विरह की ज्वाला से झुलसकर तनिक भी नहीं कुम्हिलाती, वरन् नित्य-प्रति हरी-भरी होती और खूब फूलती-फैलती जाती है।
यह बिनसतु नगु राखिकै जगत बड़ौ जसु लेहु।
जरो बिषम जहुर ज्याइयैं आइ सुदरसनु देहु॥514॥
नगु = रत्न। विषम जुर = (1) कठिन ज्वाला (2) विषम ज्वर, तपेदिक की बीमारी। सुदरसनु = (1) सुन्दर दर्शन (2) सुदर्शन का अर्क।
इस नष्ट होते हुए रत्न की रक्षा कर (अनमोल नायिका को मरने से बचाकर) संसार में खूब यश लूटो-यह कठिन विरह-ज्वाला (विषम-ज्वर) में जल रही है, अतः आकर सुन्दर दर्शन (सुदर्शन-रस) देकर इसे जिला दीजिए।
नोट - वैद्यक के अनुसार सुदर्शन-रस से विषम-ज्वर छूटता है।
नित संसौ हंसौ बचतु मनौ सु इहिं अनुमानु।
विरह-आगिनि लपटनु सकतु झपटि न मीचु-सचानु॥515॥
संसौ = संशय = संदेह। हंसौ = (1) प्राण को (2) हंस को। मीचु = मृत्यु। सचानु = श्येन = ‘बाज’ नामक शिकारी पक्षी।
उसके प्राण (रूपी-हंस) को बचते देख नित्य संदेह होता है (कि वह कैसे बचा?) यह अनुमान होता है कि मानो विरह रूपी आग की लपटों के कारण मृत्यु-रूपी बाज उस पर झपट नहीं सकता।
करी विरह ऐसी तऊ गैल न छाड़तु नीचु।
दीनै हूँ चसमा चखनु चाहै लहै न मीचु॥516॥
गैल छाड़तु = (गैल = राह) पीछा नहीं छोड़ती। दीनै हूँ चसमा = ऐनक देने (लगाने) पर भी। चखनु = आँखों पर। नीचु मीचु = निगोड़ी मौत।
विरह ने उसे ऐसी (दुबली-पतली) बना दिया है, तो भी नीच मृत्यु उसका पीछा नहीं छोड़ती। (दुबली-पतली) बना दिया है, तो भी नीच मृत्यु उसका पीछा नहीं छोड़ती। (किन्तु क्या करे बेचारी?) आँखों पर चश्मा चढ़ाकर भी (उसे ढूँढ़ निकालना) चाहती है, (तो भी) नहीं पाती।
नोट - ”नातवानी ने बचाई जान मेरी हिज्र में।
कोने-कोने ढूँढ़ती फिरती कजा थी मैं न था।“-जफर।
मरनु भलौ बरु बिरह तैं यह निहचय करि जोइ।
मरनु मिटै दुखु एक कौ बिरह दुहूँ दुखु होइ॥517॥
मरनु = मृत्यु। बरु = बल्कि। जोइ = देखो।
यह निश्चय करके देखो कि विरह से बल्कि मृत्यु ही अच्छी है, क्योंकि मृत्यु से तो (कम से कम) एक आदमी का दुःख छूट जाता है, किन्तु विरह में (प्रेमी-पेमिका) दोनों को दुःख होता है।
बिकसित नवमल्ली-कुसुम बिकसति परिमल पाइ।
परसि पजारति बिरहि-हिय बरसि रहे की बाइ॥518॥
बिकसित = खिलते हुए। नवमल्ली = नई चमेली। कुसुम = कोमल फूल। परिमल = सुगंध। परसि = स्पर्श कर। पजारति = प्रज्वलित कर देती है। बरसि रहे की = बरसते समय की। बाइ = वायु = हवा।
जो नई चमेली के खिलते हुए फूल की सुगन्ध पाकर निकलती है, वह वर्षा होते समय की हवा, विरही के हृदय को स्पर्श कर प्रज्वलित कर देती है।
औंधाई सीसी सुलखि विरह बरनि बिललात।
बिचहीं सूखि गुलाब गौ छींटौं छुई न गात॥519॥
औंधाई = उलट (उँड़ेल) दी। बरनि = जलती हुई। बिललात = रोती-कलपती है, व्याकुल हो बक-झक करती है। छीटौं = एक छींटा भी। गात = देह।
विरह से जलती और बिललाती हुई देखकर (सखियों ने नायिका के शरीर पर गुलाब-जल की) शीशी उलट दी, (किन्तु विरह की धधकती आँच के कारण) गुलाब-जल बीच ही में सूख गया, (उसका) एक छींटा भी (विरहिणी के) शरीर को स्पर्श न कर सका।
हौं ही बौरी बिरह-बस कै बौरौ सब गाँउ।
कहा जानि ए कहत हैं ससिहिं सोत-कर नाँउ॥520॥
हौं ही = मैं ही। बौरी = पगली। ससिहिं = चन्द्रमा का। सीत-कर = शीतल किरणों वाला, शीतरश्मि, चन्द्रमा। नाँउ = नाम।
विरह के कारण मैं ही पगली हो गई हूँ, सारा सारा गाँव ही पागल हो गया है। न मालूम क्या जानकर ये लोग (ऐसे झुलसाने वाले) चन्द्रमा का नाम शीत-कर कहते हैं।