भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

आम आदमी की अकादमी / तरुण

Kavita Kosh से
Lalit Kumar (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 12:57, 20 मार्च 2017 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=रामेश्वर खंडेलवाल 'तरुण' |अनुवादक...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

हे जीवन के घृण्य, विद्रूप, वीभत्स, कटु कठोर-
तुम भी हो-मानव के, जीवन के अनिवार्य अंग, पग-पग प्रसरित
चारों ओर!

स्वेद-सिक्त जीवन के, मनुज के उपभोग्य!
तुम भी हुए जा रहे हो अब मुझे, स्वागत योग्य!
अतएव, खुशबू, नफ़ासत, कोमलता और चिकनाई-
सबको एक साथ करके बन्दगी,
लो, भेंटने आया हूँ मैं अब खुली आँखें से
रोजमर्रा की कशमकश व पसीने से सनी जिन्दगी-
जिसमें है शोर-शराबा, धूल-धक्कड़, कीचड़, मच्छर और गन्दगी!

मेरे मकान से सटी, हर समय डटी,
लक्कड़ चीरने की है आरा मशीन-
उड़ता आता है दिन भर जिसका बुरादा
मेरी टेबुल पर; मोटा, महीन।
सामने-कटती भी है कुट्टी,
आटा पीसने की चक्की को कहाँ छुट्टी!
ट्रकों से उतरते हैं-चूना सीमेंट, बजरी, ईंटें और रेत,
मजदूर हो जाते हैं भूत-लाल, पीले और श्वेत।

कर्णभेदी है-शादी की दावतों के लिए
जाल में जबरदस्ती पकड़े जाते मस्त मोटे सूअरों की
तीखी लम्बी आँटेदार चिंघाड़!
जब वे खाते पछाड़ पर पछाड़।
खड्डे खुचरों वाली सड़क पर धड़धड़ाते जाते
ट्रक-तीखे हॉर्न बजाते,
भोंपू, लाउडस्पीकरांे के ऐलान
सभा-सोसायटी, दवा, लाटरी के लिए।
स्टील के रेलिंग, लौह-लक्कड़, सरिये का होता खनाखन गान,
-टीन की चद्दरों के लोडिंग-अनलोडिंग का चलता अभियान,
-सब कुछ है-मानों आँख और कान की दावत का पूरा सामान।
मोपेड स्कूटर की फट्फट्
साईकल रिक्शे की ट्रन-ट्रन, सुथार की खट्खट्
ट्रेक्टर की खड़खड़,
भैंसा गाड़ी की भड़भड़
गेअर बदलने की भर्र-भर्र,
शाम को मेंढकों की टर्र-टर्र,


अखबार, सब्जी, दूध, डाक वाला और मिस्तरी
घर की कॉलबेल लगाते है-
ट्रन-ट्रन होती है लम्बी, तीखी, खरी।
अमीन रोड पर आवाजों का यह जंगल-
अपने में समेटे रहता है-जग मंगल ? शक्ति दंगल ?
आँधी, हवा में, उड़ती आतीं दर्जी की कतरनें-
आती हों-जैसे, बकरियाँ मेरे आँन में चरने।
चलता है वसन्त में शहद की मक्खियों का घेराव,
लगते हैं, ततैयों के डंक; नीमों पर चलती कौओ की काँव-काँव।

यही तो है रे, जिन्दगी की मेन रोड,
कोई कहाँ जायगा इसे छोड़ ?
लम्बी-करोड़ों अरबों बीघा-
यही तो है कामकाजी जिन्दगी की कलादीर्घा
नकद संगीत नाटक अकादमी-
रोजी-रोटी की मुशक्कत करता
इसमें ही तो दर्शनीय-नर-नारायण: आम आदमी।

1983