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हम शिल्पी संत्रास के / तरुण

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अरे-
आखिर हम आदमी ही तो हैं
हाड़-मांस के!

मरणधर्मा, क्रूरकर्मा, चार फुटे-
हर क्षण-
अपने ही विनाश की कला में जुटे-
जेब में पलीता लिए, और-
सिर पर गट्ठर ले, सूखी घास के!
आखिर हम आदमी ही तो हैं-
हाड़-मांस के!

आकाश को गीले कपड़े की तरह निचोड़ डालने की
है हमारी आकांक्षा-
पर, एक-एक पोरा हमारा
है जीवन-रस का प्यास!
हाँ, हाँ, हम हैं वंशज-
पोले और ठूँठे-बहुत ऊँचे बाँस के!
आख़्रि हम आदमी ही तो हैं-
हाड़-मांस के!

वह अदना दीप ही तो होगा, जो बुझकर
धूम्र-रेखा छोड़ शान्त हो जाता है-
लेकिन, हम तो मनुज हैं न! कि जिनका वैर
मृत्यु की छाती को चीर कर पार जाता है!

हाँ-हाँ, सच्चे हैं हम-
अपनी पीड़ा के, अपनी ग्रन्थि के,
और अपने मन की गाँस के!
आखिर हम आदमी ही तो हैं-
हाड-मांस के!

रुंड-मुंड होकर, पुर्जा-पुर्जा
कट-कट कर मरना,
फिर, मर-मर कर जीना ही तो हमारी नियति है!
प्रतिशोध न ले सके तो क्या-अपनी छाती ठण्डी करने,
बुझ कर धूम्र-रेखा ही छोड़ जाने में
ऐसी कौन सी अनीति है!
अरे, हम हैं बन्दी-अपने ही रचे
कोमल और रेशमी नाग-फाँस के!
आखिर हम आदमी ही तो हैं-
हाड-मांस के!

हम हैं अधीर, चिर-मरणातुर,
अमर सपनों वाले-
हम हैं रे-क्षण भंगुर!
अरे, हम हैं बघनखे, रण-बाँकुरे-
काचे धागे की-फ़क़त एक जोड़ी साँस के!
आखिर हम आदमी ही तो हैं-
हाड-मांस के!

हम हैं मनुजवंशी, स्रष्टा और द्रष्टा
अपने ही विनाश के!
अरे हमें हैं कला-कुशल शिल्पी-
संत्रास के!
आखिर हम आदमी ही तो हैं-
हाड-मांस के!

1976