भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

आओ, चाय पीयें / तरुण

Kavita Kosh से
Lalit Kumar (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 13:11, 20 मार्च 2017 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=रामेश्वर खंडेलवाल 'तरुण' |अनुवादक...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

गुम्मचोट से जैसे शरीर के अंग में सँवलाया नील-पड़ा रक्त
बँध जाता है-
वैसा ही-
गले में, मेरे तो अनभिव्यक्त पीड़ा का
कुछ काला-काला-सा विष जमा हो गया है!

सत्ता को, समाज को, विधाता को नींद की बड़बड़ाहट में
हमने जो
जी भर कर तन्दुरूस्त गालियाँ दी थीं-
वे ओठ पर न आ सकीं-पुलिस के डर से;
कंठ की मुलायम त्वचा वाली चिकनी भोजन-नली
इसी कारण अधभुनी-अधजली शकरकंदी-सी हो गई है-
उसमें चिकनाई, गरमाई, सिधाई लाने
आओ, चाय पीयें।

जेठ की लू-गर्मी में, सूखे तालाब में
जैसे दरारें पड़ जाती हैं, पपड़ियाँ उभर आती हैं-
वैसे ही, जीभ से फेफड़े तक हो गये हैं मेरे तो भीतर
खून-सा बहाते घाव-कटाव-
आओ उन्हें ‘लेबल’ कर दें-
(जैसे, साम्यवाद में सब ‘हाई’ और ‘लो’ बिल्कुल बराबर
हो जाते हैं!);
आओ, चाय पीयें!

अपने भोथरे, भर्राये गले मेें-
चाय की एक गरम घूँट लेकर
पथरायी, फटी-फटी आँखों में
पुरानी आशा-आकांक्षाओं की यादें ताजी करते
भविष्य के कुछ फटीचर सपने उकसावें!
और अपने भाग्य-जैसी काली स्याही में छपे
महँगाई जल्दी मिटने
और गरीबी की काई फटने का भोंपूनुमा
हड़का अखबार पढ़ते हुए,
मिनिस्टर की सरपट जाती कार की-सी तेज ब्लेड से
दाढ़ी बनाकर
अपने को पहचानने के लिए
फूटे हिलते शीशे में अपना षट्कोणी मुखड़ा देखें!

आओ, चाय पीयें।

1972