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रेल की खिड़की से / तरुण

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रेल की खिड़की से
अहमदाबाद स्टेशन के पास
मैंने देखा कि-
बिजली से चलते एक समतल चौड़े मशीनी पलुए से

जमीन पर बिछे कोयले के ढे़र को
नीचे से समूल खरोंच-समेटकर
करीने के साथ उठा
पास ही तैयर खड़े ट्रक पर
लुढका-ढहा दिया जाता है।
(प्रक्रिया चलती रहती है)

जैसे-
एक अदद राजनीतिक लोथ
उसके अनजाने में ही
नितम्बपूर्वक, कहीं से समूल उठाई जाकर
किसी गद्दीदार रौलिंग जन कुर्सी पर
कहीं भी
परस दी जाती है, आमलेट की तरह, जनता को!
(जनता का भाग्य खिल उठता है
जेठ में इतराते लाल सिन्दूरी गुलमुहर की तरह!)

लोथ-बिना किसी उज्र के
सहज ही अन्यत्र, सरका दी जाने के लिए-
यथावसर, ससम्मान, शान्तिपूर्वक,
सस्नेह, नीरव!
सुविधानुसार!

1979