भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
कुर्सी / तरुण
Kavita Kosh से
Lalit Kumar (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 13:26, 20 मार्च 2017 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=रामेश्वर खंडेलवाल 'तरुण' |अनुवादक...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
ओ-हो री कुर्सी,
मिठास है ज्यादा-
थोड़ी सी तुर्शी!
गन्ने के रस में नींबू के रस सी!
ओ-हो री कुर्सी।
कुर्सी को नहीं छोड़ता कुर्सीघर
तो कुर्सीघर को भी क्यों छोड़ेगी कुर्सी?
मियाँ-बीवी राजी-
तो क्या करेगा काज़ी!
उठे भी तो कोई कैसे उठे-
कुर्सी पर लिथड़ा है गाढ़ा गोंद!
क्या कर लेगी क्रेन, और
क्या कर लेगी लिफ्ट-
नितम्ब हैं भारी,
और भारी है तोंद!
करते रहो मातमपुर्सी!
ओ-हो री कुर्सी,
हँस-रो रो कुर्सी,
काली-गोरी कुर्सी,
सीनाजोरी कुर्सी,
योगिनी कुर्सी, भोगिनी कुर्सी
स्वर्ग जैसी है तू, या है यमपुर सी!
लप्पर झप्पर कुर्सी!
घनचक्कर कुर्सी!
सोने की कटार-आखिर है तो सही कुर्सी!
1982