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अपने सपनों की मौत पर / तरुण

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इन सपनों का अब मैं क्या करूँ!

सुनहली गुलाबी पहली सूर्य-किरण फूटने के क्षण,
मधुवन के पतझड़ में
जमादारिन की धूल-उड़ाती झाडू़ से

भड़भूँजे की भाड़ में पहुँचने को
गट्ठर में बँधने-बेताब से-इकट्ठे किये जाते हुए,
ताँबे के रंग के, सूखे, कड़क, शरभराते पत्तों-जैसे
जीवन के अने इन ढेर सारे, थोकबन्द कजलाये, बासी,
व्यतीत सपनों का अब मैं क्या करूँ!

जो रहे कभी-
कतकी पूनम चाँदनी में, चमचमाते
हवा में फरफराते, महमहाते
हरे चीकने पीपल-पातों से लहलहाते
मेरी पलकों के नायलनिया गीले-भीने रूमाल में
(कहीं खरौंट-खरौंच न आ जाये, इस चिंता से)
खुशबूदार मोगरे-मौलसिरी की ताजी कलियों-से बँध
अपने उन भीने-भीने सपनों का
अब मैं क्या करूँ!

ढलती रात की
दूरागत बाँसुरी की रागिनी जैसे मादक,
मेरे कानों की पलकें झँपाते,
आँखों के आगे अतीत की चित्रशालाएँ जगाते;
जीवन के अपने उन प्रागैतिहासिक
ढेर-ढेर सपनों का अब मैं क्या करूँ!

1986