अपनी ही मस्ती / तरुण
घास, फूस, खेत, खलिहान के पास-
अपनी तो हो बस कोई एक झोंपड़ी,
जहाँ परेशानियों से भिन्नाये नहीं खोपड़ी।
बाहर, दालान में हो एक हरा-सा नीम, शहतूत का पेड़-
चितकबरी छैयाँ फैलाता, बड़ा या अधेड़।
नीचे पड़ी रहती हो कोई एक नई-पुरानी खटिया,
सहारे, रक्खी भी हो एक लठिया।
झिलेंगे खाट की चाहे रहें लटकी।
पास में भरी रक्खी रहती हो सफेद माँडने-मँडी ठंडे जल की मटकी।
आते-जाते खाट पर दचक कर बैठूँ,
ठंडी हवा में, मौज-मस्ती से, अधमुँदी आँखों से लेटूँ;
पास में टिका भी रहता हो हुक्का;
इधर-उधर से कभी कोई निकल आवे हमजोली भी इक्का-दुक्का।
चित्तीदार अमरूद जैसा छायादार,
फैला हो सीधा आँगन, चले ठंडी-ठंडी बयार।
बिखरी पड़ी रहती हों हरी-पीली निबौलियाँ,
नाचें नर-नार छोरे-छोरियाँ।
काली-चिकनी बकरियाँ इधर-उधर मिमियाती हों-
झाड़ियों पर उचक पत्तियाँ खाती हों, चिड़ियाँ गाती हों।
डाकिया बस कभी-कभी ही आवे-
एकाध चिट्ठी दे जावे,
न चाहिए शरबत, टोस्ट, मक्खन, अंगूर, आडू़
कोई तीस मार खाँ समझे अपने को तो पछाडू़ँ।
खाऊँ मेहनत-पसीने की अपनी दाल-रोटी,
पर-पोषक, अन्यायी-आततायी की काटूँ बोटी-बोटी।
1971