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मुक्तक / तरुण

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इन नयनों के बीच साँवली पुतली है,
जिसके बीचोंबीच, नयन का तारा है-
इस तारे के बीच, घनी हरियाली में-
मेरी रूप-किरण! आवास तुम्हारा है!

मैं असाढ़का पहला बादल-
जिसमें गीत, घुमड़ औ’ बिजली!
तुम चन्दा पर रल्मल्, हल्की,
झीनी, धवल, उनींदी बदली!

हम तो इन्द्रधनुष-से दिल के,
धन, पद-सड़े प्याज के छिलके!
रोटी-मट्ठा खा जी लेंगे-
बस, बबूल के तरु के नीचे!

इन्द्र-धनुष का चूर्ण उड़ा आकाश में-
आँधी-सी कुछ निकल गई संगीत की!
-याद रही इतनी-सी बात अतीत की!

कागजी इस फूल में मकरन्द लाओ,
जिन्दगी के गद्य में कुछ छन्द लाओ,
भेज कर सब वायुयानों को गगन में-
भूमि पर सब स्वर्ग का आनन्द लाओ!

बुझ चुकी है दीप की लौ, पर अभी बाती गरम है,
है न ज्वाला-किन्तु फिर भी दाह मन में कौन कम है!
उठ रहीं आहें अँधेरे में धुएँ की लहरियों-सी,
आह रे, यह ज़िन्दगी की चाह-कितनी बेशरम है!

जला, परन्तु यों जला-न अंग छार हो सके,
गला, परन्तु यों गला-न दीन नैन रो सके,
गुँथा, परन्तु यों गुँथा-न अंग हार हो सका,
बजा, परन्तु यों बजा-न तन सितार हो सका!

सावन-भादो के घन रिमझिम बरसा करें युगों तक चाहे,
पर दो दाग न धुल पायेंगे-एक, चाँद का! दूजा, मेरा!

खुले पड़े तारों-भरी अनुभूतियों के कोष-
इसमें क गगन का दोष!

सूरज, चाँद सितारों पर तो मुझे नहीं विश्वास है;
क्योंकि उजाले का यह उद्गम कालतिमिर का ग्रास है;
पंथ सुझावे, और राह के रोड़े कर दे भस्म जो-
ऐसी एक अमर ज्वाला है, जो मेरे ही पास है!

धुआँ, धूल, धुंध, अँधियारा-
इनका चारों ओर पसारा!
किन्तु, इसी में चमक रहा है-
मेरी आशा का धु्रव-तारा!

बोलो सन्तो, क्या विचार है?
अपनी डिबिया में राई-सी ज्योति बची है,
भूँक रहा काजल-काला सघनान्धकार है,
बोलो सन्तो, क्या विचार है?

‘आँधी और चाँदनी’ (1975) से