भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

रू-ब-रू-ज़िन्दगी से / तरुण

Kavita Kosh से
Lalit Kumar (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 14:01, 20 मार्च 2017 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=रामेश्वर खंडेलवाल 'तरुण' |अनुवादक...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

जब पूरी तानी पर तनी खुली छतरी जैसे
ऊँचे, गहरे-गहरे, धुपहले-चमकीले
विस्मय-ही-विस्मय-जैसे, तिल के फूल-से, नीले-
आसमान के नीचे-
अपने काँधे फेनों के अयाल लहराता
गहर-गम्भीर उछालें खाता, मीलों से हरहराता आता
थबोलता समुद्र का पानी
(कोई सुने या न सुने!)
नुकीली-खुरदुरी-बेडौल काली-भूरी-हरी-कत्थई
इस्पाती चट्टानों वाले किनारे से
सिर मार-मारकर,
पछाड़ें खा-खाकर, ताबड़तोड़ टकराया-
तब मैं जिंदगी से रू-ब-रू मिला!

धूप में
हवाई झोंक-झँकोरे के स्निग्ध-मौन चादरी बहाव के तहत
गेहूँ की हरी किरणों वाली अन्तर्जड़ाऊ बालियों
तोतापंखी समन्दर
एक महीन लय में
अलमस्त ग्राम-नर्तकी की धानी साड़ी की फहरान-सा
यहाँ से वहाँ तक
कोमल पटलियों में
आ-क्षितिज तरंगाया-
तब मैं जिंदगी से रू-ब-रू मिला!
पतले-कोमल चिकने डण्ठल में नहीं-
मेंहदी-रची हथेलियों वाली अज्ञातयौवना
मासूम पँखुरियों में भी नहीं-
पर, केसर-मधु-पराग खुशबू से रंगारंग-लथपथ
सुमनों के, कििलयों के कुँवारे कलेजे-सा
मुझमें कुछ-अपना, गीतों-भरा, नितान्त निजी
लदा-उभरा-सा, ज्वारों-भरा कुछ उफनाया-
तब मैं जिंदगी से रू-ब-रू मिला!

1987