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अश्क आँखों में रोककर मैंने / विजय किशोर मानव

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अश्क आंखों में रोककर मैंने
ख़ाक छानी है उम्र-भर मैंने

जब भी निकले हैं आईने बनकर
हर कहीं पाए हैं पत्थर मैंने

कौन पिंजरों में उम्र-भर रहता
नोच डाले हैं अपने पर मैंने

जलाया रोज़ अंधेरों के ख़िलाफ़
चराग़ बनके अपना सर मैंने

उम्र-भर बूंद-बूंद क्या पीता
पी लिया प्यास भर ज़हर मैंने