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सबको उड़ना कहाँ मयस्सर है / विजय किशोर मानव

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सबको उड़ना कहां मयस्सर है
जिसका आकाश उसकी के पर हैं

वो और हैं जो जीतते हैं दांव,
हम तो हर बार खेलते भर हैं

हादसा इससे बड़ा, नामुमकिन
एक तलवार है, झुके सर हैं

ज़रूर तह में खरोंचें हैं कहीं
जिस्म दिखते जो संगमरमर हैं

भीड़ रह-रह के बजाए ताली
मैं जमूरा, मेरी आंखें तर हैं