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रोशनी के सताए हुए हैं / विजय किशोर मानव
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रोशनी के सताए हुए हैं
फिर भी दीपक जलाए हुए हैं
आंखें सूखी हुई हैं मगर
सौ समंदर छिपाए हुए हैं
एक मुद्दत हुई, सब गए
ये शहर हम बसाए हुए हैं
सर झुके हैं ज़माने के, हम
हाथ अपने उठाए हुए हैं
दम घुटे चुप्पियों में तो क्या
हम उन्हें गुनगुनाए हुए हैं
खोई मंज़िल, मिटे रास्ते
कारवां हम चलाए हुए हैं