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किस तरह चीख़ते रहे होंगे / विजय किशोर मानव

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किस तरह चीख़ते रहे होंगे
फूल पानी में जब बहे होंगे

चौंक के उठ गए थे हम जिनसे
किसी महल के क़हक़हे होंगे

ये गुलाबों की नस्ल, ये कांटे
जाने कितने सितम सहे होंगे

रंग के छोड़ी है किसी ने चिड़िया,
उसके ख़्वाबों में रंग रहे होंगे

ये जो जाते हैं चुराकर नज़रें,
पुतलियों में कभी रहे होंगे