एक छोटा सा मसीहा / महावीर सरवर
एक सपना हर सुबह निकलता है हमारे साथ
सद्यःस्नात बच्चों की तरह अंगुली पकड़कर
मिलता है लोगों से जाने-पहचाने/चिड़चिड़े अजनबी
खुशदिल/मायूस
बसों में/गलियों में/दफ्तरों में/चौराहों पर/
बाजारों में/सबसे खिले माथे से मिलता है
और समझाता है जीना सिर्फ ऐसे ही नहीं होता-
ऐसे भी होता है।
सपना दूब-सी भावनाओं का पुतला है
पर तर्क-वितर्क करता है
दूसरों को कन्विंस करने के लिए
हर जगह सींग भिड़ाने को तैयार है
और हमारी जिंदगी की काफी दिक्कतों का जिम्मेवार है
आज तक हम इसकी उंगली सहेजे हुए हैं
घाटा उठा रहे हैं।
सपना बसों की थचकधाती भीड़ में
दफ्तरों में/राशन की लाइनों में
बड़ी उदारता से अपनी सुविधा
दूसरों को दे देता है ताकि अमन रहे
और खुद हर जगह झेलता है व्यंग्य
उपहास, अपशब्द।
पर यह हर वक्त मुस्कराता है।
निठल्ली बेशर्मी से अपना भाषण जारी रखता है
यह उलझता है, लड़ता है, झगड़ता है
कहीं बिदकता है, कहीं अकड़ता है
कहीं जीतता है कहीं हारता है
और हर रोज का जमा-हासिल
सिर्फ एक शून्य पाता है
लोग एक अंधी जिद में कैद है
यह रोज यूं ही घाव और खरोंचें सहता है।
हर शाम को ठोकरें खाता
बदरंग चेहरा लिए हमारे साथ लौटता है यह
रात को अंधेरे में विश्रान्त हमारे सीने में
हल्के-हल्के धड़कता है।
हम खुद को थपथपाते हैं/और सपना सो जाता है
नए दिन की जद्दोजहद की प्रतीक्षा में।