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साझे की नींद / विजय किशोर मानव

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एक छत की नींद
बंद कमरे में साथ रहते चुपचाप
गुजर जाए उम्र
शीतयुद्ध लड़ते एक जोड़े की तरह,
या आसमान तले
हजारों मील का सफर
तय कर लें साथ-साथ
रेल की पटरियों की तरह,
मंजिलें एक होते हुए भी
कभी नहीं मिल पाते दोनों।

अभिशप्त गंधर्व की या
यक्ष की कथा से भी त्रासद
कथा का साक्षी मैं
मुग्ध हूं
चिड़ियों के जोड़े की प्रेमकथा पर,
निरापद नहीं है घोंसला,
कभी भी आंधी-पानी का आ धमकना
और बिल्ली की तेज आंखों का डर
बहुत करीब होता है घोंसले के,
लेकिन बसेरा लेता है जोड़ा
निश्चिंत
एक-दूसरे की गरमी महसूस करता।

आंख खुलते ही साफ करते हैं चोंचे
दोनों आपस में,
निकल पड़ता है जोड़ा चिड़िया का
भूख से लड़ता-हांफता
लेकिन हारता नहीं,
बीच-बीच में हौसला देता एक-दूसरे को
लौटता है दिन ढले थका हुआ
लेकिन संतुष्ट,
साझे की नींद सो जाता है
बिना शिकायत के।