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मुझे होना था वहीं / रमेश आज़ाद

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जब तुम जन्म ले रही थी
वेदना झेलती तुम्हारी मां
बाट जोह रही थी
उस घड़ी मैं वहां नहीं था
जबकि मुझे होना था वहीं
कमरे के बाहर
पर्दे को पार करती दर्द की आवाज सुनने,
तुम्हारा पहला रुदन
मेरे कानों से होकर गुजरता
हंसना सीखता-सिखाता
पर मैं वहां नहीं था
पानी गर्म करने
या कहीं से
एक गिलास दूध लाने के लिए।
मुझे होना था आसपास
कुछ दवाएं थीं तुम्हारी मां को
मुझे उसके लिए
कर्ज का इंतजाम करना चाहिए था,
तुम्हें मेरे सख्त हाथों के
नर्म स्पर्श की जरूरत थी
कुछ भी नहीं
तो ढांढस और विश्वास बन
बेचैन चहल कदमी करते होना था मुझे,
प्रसूतिगृह से निकलती दाई को
नेग पूरना था
न मालूम मुझे क्या-क्या करना था!
शायद थाली बजाने भी
तुम्हारे ननिहाल में
खत लिखना था शायद
गुड़ बांटना था
पर मैं बरसों से
कोर्ट के गलियारे में ही घूम रहा था
मनहूस हाथों से लिखने वाले
मनहूस को ताकता
सुनता
उम्मीद थी कि
फैसला आएगा जल्द!
मगर नहीं
जालिम फैसले को लिखने में भी
लगा दिए थे कई साल
न्याय की मूर्ति ने।

मगर
यह तो सही है
कि इन जालिमों के विरुद्ध
फैसला लिखने को
तुम
ले रही थीं
जन्म।