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बासठ पार का कवि / हरिपाल त्यागी

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बासठ पार का कवि
एकाएक जवान हो उठा
प्राकृतिक चिकित्सा के चलते
वह आदमी से घोड़े में
बदल गया।
जवान होते ही
अपने चिड़चिड़े क्रोधी स्वभाव के विपरीत
एक जंग छेड़ते हुए
उसने खुलकर हंसना चाहा
लेकिन वह अपनी
हिनहिनाहट ही सुन पाया।

उसकी वाटिका में
बेमतलब ही
तरह-तरह के फूल खिला करते थे
उसके नाम तक वह नहीं जानता था।
बासठ पार का कवि
पड़ोसी की वाटिका के फूलों पर
कविताएं लिखता था।
उसकी जवानी के कुछ दुख-दर्द थे
जिनके कारण वह कवि हुआ
और फिर बासठ पार काभी हुआ।
यों वह प्रकृति का कवि था
लेकिन बदलते मौसम का पता
उसे तब लगा
कि जब
उसने दरवाजे पर खड़े होकर
ताड़ से दो छींक मारीं।
और कि-
जब तक उसकी नाक और आंख से
पानी चू पड़ा
कि जब/वह बीमार हो गया...
और तब अचानक
उसमें इन्सानियत जाग उठी
हालांकि/वह पहले से ही जागी हुई थी
घोड़े से फिर आदमी/में लौट आया
बासठ पार का कवि।

अब वह-
आदमी और कविता के/स्वास्थ्य को
पतला करते हुए
अपने एकान्त कमरे/में लेटा हुआ
उनींदी आंखों से
छत को निहारता रहता है
जहां/गिनी जाने के लिए
कड़ियां तक नहीं हैं
और-
देखता है झंडों का झुकना
बासठ पार का कवि!
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अलविदा दोस्त! प्र...णा...म...