भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

सोच, मत हो चित्त चंचल / अमरेन्द्र

Kavita Kosh से
Rahul Shivay (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 10:14, 23 मार्च 2017 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=अमरेन्द्र |अनुवादक= |संग्रह=दीपक...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

सोच, मत हो चित्त चंचल,
आज क्या है, और क्या कल ?

जो तुम्हें करना यहाँ है
नींव रख तू, घर खड़ा कर,
विघ्न-बाधा सोचना क्या,
हर कदम पर मत अड़ा कर;
पूस की है धूपµसाँसें
सोचते क्या, थाम लोगे ?
यह तुम्हें ही सोचना है
काल से क्या काम लोगे ।
फूँक मारो उंगलियों पर
बज उठेंगे वेणु-मादल !

क्यों प्रतीक्षा में रहो तुम
स्वातिसुत-सा; स्वाति बरसे।
क्या तरसना इस तरह से
जिस तरह बैशाख तरसे ।
जो बनो, तो सौन, भादो,
चैत का मधुमास हो जा !
पूर्णिमा का चाँद ही क्या,
चातकों की प्यास हो जा !
बह रही मरुभूमि में है
फिर नदी वह शांत कोमल।