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41 / हीर / वारिस शाह
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मुलां आखया नामाकूल<ref>नाजायज़</ref> जटा फरज कट के रात गुजार जाईं
फजर होई तों अगों ही उठ एथों सिर कजके मसजदों निकल जाईं
घर रब्ब दे मसजदां हुंदयां ने अजगैब<ref>अलौकिक</ref> दीयां हुजतां नांह उठाईं
वारस शाह खुदा दे खानयां नूं एह मुलां भी चंबड़े ने बलाईं
शब्दार्थ
<references/>