लज्जा तुम्हारा आभूषण नहीं है / कर्मानंद आर्य

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अंतिम प्रतीक्षा के बाद
इन टापुओं पर फैले बहुत छोटे-छोटे सूखे कपास
सरकारी दुःख की तरह
तुम्हारे उपांगों की सूखी हुई चर्बी
तेज हवा के झकोरे से पथराई हुई लट
यह साबित करते हैं कि तुम्हें मार दिया गया है

कितनी बार ली गई तलाशी
कितने बार टटोले गए उपांग
कितनी बार विधिपूर्वक पूछताछ की दरोगा ने
तुम्हारे स्तनों का दूध भय से सूख गया

यह सब कुछ दर्ज है सरकारी महकमें के किसी रजिस्टर में
जानता है लाओत्से, पर तुम्हारे बलात्कार की खबर
अब भी संपादक के कमरे में पड़ी है

शाम के धुधलके में जब दारूबाज भेड़िये
तुम्हारी फोटो मुख्यालय भेज रहे थे
तब उनके चेहरे पर एक रहस्यमयी मुस्कान थी
हालाँकि उनकी रहस्यमयी मुस्कान उनके जड़ों से जुडी हुई थी
उन्होंने फोटुयें भेजी क्योंकि वे नशे में रहे होंगे

वे रिपोर्टें जो तुम पति को भी नहीं दिखा सकीं
लाल धरती पर फैल गईं मुह ढके हुए
मैला कमाते हुए भी तुमने यह नहीं महसूसा होगा
जिस्म इससे भी ज्यादा गन्दा हो सकता है

तुम्हारे मौलिक अधिकार जो अब देह में तब्दील हो चुके हैं
हजारो घंटों तक मर्सिया गाते रहे

कला के लिए नहीं था तुम्हारा यह सहवास
संगत के लिए नहीं थीं तुम्हारी ये हथेलियाँ
सत्संग के लिए तुम्हें मंच पर नहीं बैठाया गया था
बल्कि तुम्हें तुम्हारे दलितापे से नोच लिया गया था

खैर, तुम ख़त्म नहीं हो रही हो
तुम्हारे खून में भी आ रहा है उबाल
तुमने अपने आक्रोश को गीत में बदल लिया है
तुम्हारे हाथों में रक्खी हुई किताबें
विद्रोह की ज्वाला में जल रही हैं

दलिताओं! लज्जा तुम्हारा आभूषण नहीं है
तुम्हारा आभूषण है ज्ञान, विवेक, विद्रोह

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