गाय नहीं बकरी माँ है / कर्मानंद आर्य
छत्तीस रोगों को काटता है उसका दूध
जब मैं पैदा हुआ, माँ के पीले दूध की जगह
पिलाया गया बकरी का दूध
बकरियां चराते हुए, हमने जाना सहभाव
हमने उनके बच्चों को हाथ में लेकर बहुत प्यार किया
हमने जाना स्नेह के लिए
जाति और लिंग की जरुरत नहीं
दर्जनों बकरियों वाले घर में
हमारी जीविका का वही रहीं साधन
हम तो भूमिहीन मजदूर थे
हमारे पास नहीं था खेत
खेत नहीं था तो गोबर की जरुरत नहीं थी
फिर जब हम गाय का दोहन नहीं करते तो कैसी गाय माता
हमने उन्हें देखा किसी दशा में प्रसन्न रहना
रुखा-सूखा जो मिल जाय खुश होके खाते जाना
न किसी से ईर्ष्या न द्वेष
न वैतरणी पार कराने की जहमत
वे चाहती नहीं थीं सांस्कृतिक बगावत
वे समाज में भेदभाव भी पैदा नहीं कराना चाहती
हिन्दू और मुस्लिम क्या?
उन्होंने जाति को सिरे से नकार दिया था
अजीब सहभाव था उनके भीतर
वे सच्चे अर्थों में त्यागमूर्ति होती थीं
वे निभाती थीं माँ का पूरा रोल
जीते हुए, मरने के बाद भी
उनकी चमड़ी से हम बनाते थे ढोल
बनाते थे खजढ़ी, तम्बूरा
अपने देवता का स्मरण करते हुए
नदी का आचमन करते थे
बकरी का साहचर्य हमारी दिनचर्या का अंग
वह हमारी गरीब साथिनें थीं
स्कूल में गाय पर निबंध लिखते हुए
भूल जाते थे हम गाय पर लिखना निबंध
हमें गाय की जगह याद रहता था बकरी का चेहरा
हम बकरी को याद करके गाय पर निबंध लिख देते थे
आज मैं बकरियों से भरे इस शहर में खुश हूँ
कोई प्रतिरोध नहीं, कोई वैचारिक चुप्पी नहीं
मैं उनसे भी खुश हूँ ‘जो मुझे बलि का बकरा समझते रहे’
बकरी खाती नहीं गाय की तरह विष्ठा
एकदम शुद्ध शाकाहारी, खाती है अहिंसक घास
वह रखती है पवित्र होने का अधिकार
हाँ, उसका अस्तित्व मेरा धर्म है
खुल रही हैं गांठे
गाय से ज्यादा बकरी के दूध का उपकार है मेरे भीतर
गाय नहीं, बकरी माँ है