भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
181 / हीर / वारिस शाह
Kavita Kosh से
Lalit Kumar (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 11:30, 31 मार्च 2017 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=वारिस शाह |अनुवादक= |संग्रह=हीर / व...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
हीर आखया ओसनूं कुड़ी करके बुकल विच लुका लिआया जे
आमो साहमणे बैठ के करां झेड़ा तुसीं मुनसफ<ref>मुंसिफ, इंसफ करने वाला</ref> हो मुकाया जे
मेरे माओं ते बाप तों करो पड़दा गल किसे ना मूल सुनाया जे
जेहड़े होन सचे सोई छुट जासन रत्न झूठियां नूं चाए लाया जे
मैं आख थकी ओस कमलड़े नूं लै के उठ चल वकत घुसाया जे
मेरा आखना ओस ना कन्न कता हुण कासनूं डुसकना लाया जे
वारस शाह मियां एह वकत घुथा किसे पीर नूं ना हथ आया जे
शब्दार्थ
<references/>