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270 / हीर / वारिस शाह

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सानूं जोग दी रीझ तकोदनी सी जदों हीर सयाल महबूब कीते
छड देख शरीक कबीलड़े नूं असां शरम दे तर महिजूब<ref>हया</ref> कीते
रत्न हीर दे नाल सी उमर गाली असां मजे जवानी दे खूब कीते
हीर छातियां नाल मैं मस भिना असां दाहां ने नशे मरगूब<ref>पसंद</ref> कीते
होया रिज़क उदास तां गल हिली मापयां वयाह दे चा असलूब<ref>तरीका</ref> कीते
दिनां कंड<ref>पीठ</ref> दिती भावी बुरी सायत<ref>घड़ी, टाइम</ref> नाल खेड़यां दे मनसूब कीते
पया वखत जां जोग विच आन फाथे एह वायदे आन मतलूब<ref>इच्छा</ref> कीते
एह इशक ना टले पैगंबरां तों थोथे इशक ने हड अयूब<ref>एक पैगंबर</ref> कीते
इशक वासते शाह सकंदरे ने फते शहर शमाल जनूब<ref>उत्तर-दक्षिण</ref> कीते
एस जुलफ जंजीर महबूब दी ने वारस शाह जेहे मजू़ब<ref>मस्त, पागल</ref> कीते

शब्दार्थ
<references/>