भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
ई बरसा रऽ रात / खुशीलाल मंजर
Kavita Kosh से
Lalit Kumar (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 17:25, 5 अप्रैल 2017 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=खुशीलाल मंजर |अनुवादक= |संग्रह=पछ...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
ई बरसा रऽ रात
पिया सें कहबै एक्के बात
देखऽ की रं मेघ हुमड़ै छै
रही रही बिजली की चमकै छै
खुल्ला धरती रऽ छाती पर
की रं पुरबाँ जोर करै छै
गाछ बिरिख सब थर थर काँपै
केला पत्ता चूमै गाल
चिड़ियाँ चुनमुन खोना खोजै
दिलैं कहतौं दिलऽ रऽ हाल
ई बरसा रऽ रात
हमरऽ त बिसबास नैं लागौं
ऐल्लऽ छऽ भल्लें ताकऽ पर
अपनां नजरीं देखी लेॅ नीं
की र जनानी दुख भोगै छै
आय मरदै रऽ बात पर
ई बरसात नैं धुरी केॅ ऐतै
तोहें रुकऽ अबकी बार
सब दिन तेॅ परदेसैं रहलऽ
कहिया पिनभऽ गल्लाँ हार
अबकी बार जौं बहाना करभा
कहिया नै राखभौं तोरऽ बात
ई बरसा रऽ रात