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हो न सके खुलकर अपनों से / नईम

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हो न सके खुलकर अपनों से,
वो भी कब किसके हो पाये ?

बीच धार में खड़े हुए हम
विकट ज़िन्दगी का ये मंजर,
पार उतरना, किन्तु डर रहे,
ढीले-ढाले अंजर-पंजर।
ख़ौफ़नाक हमले सपनों के,

नींद न हम अपनी सो पाये।

हो न सके हम पूत ठीक से,
पिता न हो पाये करीब से।
रिश्ते भी क्या रिश्ते होते,
महँगाई में इस ग़रीब के ?

मोल नहीं जाने वचनों के
अपने बोझ न हम ढो पाये।

इनसे भी क्या गिला करें हम,
उनकी भी अपनी मजबूरी।
मिली कहाँ अब तक इन उनकी,
मेहनत की वाज़िब मज़दूरी ?
सोच-समझकर सौ जतनों से
दाग़ न हम अपने धो पाये।