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भाग 16 / हम्मीर हठ / ग्वाल कवि

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भर आये आँसू, सबै रानियों के।
टरै ना पिया आँख में आँखियो के॥
बही स्वेद धारा, किती जड़ भई हैं।
किती देह में रोमराजी नई हैं॥152॥

किती कंठ स्वरभंग, बोलै न बानी।
किती अंग कपै, लखै भूप सानी॥
किती रंग बिबरन भये और तन के।
किती को रही, होस तन के न मन के॥153॥

किती मूरछा खा गिरी हैं धरा पै।
किती के सचावट न आवत हिया पै॥
किती धरी भाखी कहैं जोर कर कौं।
फतै होयगी राज आवोगे घर कों॥154॥

दिलासा सबों को दिया राज ने तब।
कहा मत करो सोच, ह्वैहै भला सब॥
उहाँ से भी त्यारी, नृपति ने करी है।
सबै रानियाँ आपके पाँवों परी है॥155॥

तभी राज अपनी सुता पास आये।
संग्राम-चर्चा उसे भी सुनाये॥
कही फिर सुता ने सुनो श्री पिताजी।
घनो धन पठावो करौ ताहि राजी॥156॥

नहीं आप कीजै परिश्रम जु एता।
महाराज आगे कहो साह केता॥
तबै भूप बोले सुनो कन्यका हे।
रहा मो सरन जो उसे माँगता है॥157॥

दोहा

तब कन्या ने यों कही, अब जान्यौ मैं मर्म।
तौ लड़िबो ही उचित है, यह छत्रिन को धर्म॥158॥