भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

कभी द्वार चाहो जो तुलसी लगाना / हरकीरत हीर

Kavita Kosh से
Lalit Kumar (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 13:42, 10 अप्रैल 2017 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=हरकीरत हीर |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KKCatGha...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

कभी द्वार चाहो जो' तुलसी लगाना
सुनो नागफनियाँ उठा फैंक आना

बहुत फैलती हैं ये नफ़रत की बेलें
हटाकर मुहब्बत की' बेलें उगाना

दिया जन्म जिसने है मानव बनाया
उन्हें मत जरा<ref>बुढ़ापा</ref> में कभी छोड़ जाना

नया ज़ख्म कोई हमें फिर दिला दो
नहीं दे सुकूं ज़ख्म मुझको पुराना

चलो अब भुला दें कि इक दूजे को हम
बहुत हो गया अब ये रोना रुलाना

नहीं ज़ख्म भरते हैं हमदर्दियों से
नया मीत मरहम जरा तुम बनाना

बसा 'हीर' सबके दिलों में ख़ुदा है
बनाया अलग किन्तु क्यों है ठिकाना

शब्दार्थ
<references/>