भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

क्षणिकाएँ / हरकीरत हीर

Kavita Kosh से
Lalit Kumar (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 14:25, 10 अप्रैल 2017 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=हरकीरत हीर |अनुवादक= |संग्रह= }} <poem> '''...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

1. कैसी ज़मीं

खुदाया!
ये कैसी जमीं लिख दी
तूने लकीरों में
कोई पौधा इश्क़ का
उगता ही नहीं!?

2. ख़ामोशी

ख़याल
लिखते रहे रातभर
मुहब्बत की नज़्म
ख़ामोशी आई और सारे अक्षर
उठा ले गई

3. फ़रेबी

फ़रेबी हैं
हाथों की लकीरें
मुहब्बत के क़रीब आकर
बदल लेती हैं ये
रास्ता अपना

4. तवायफ़

ज़रा
बताना तो सही
मेरी नज़्म का कौन सा हर्फ़
अपने जिस्म की
दुकां सजाये बैठा था
जो तुम उसे
तवायफ़ समझ बैठे !?!

5. लाशें

सुनो!
ले तो लिया है तुमने
पर मत कुरेदना कभी
इसकी सतही परतों को
न जाने कितने
मुहब्बत के परिंदों की लाशें
दफ़्न हैं इस दिल की
मिट्टी में

6. तर्जुमा

सुनो!
सुना है तुम
तर्जुमा कर लेते हो शब्दों का
कभी मेरी इस अंतर मन की
ख़ामोशी का भी
तर्जुमा करना

7. ख़ामोशी का मौसम

बड़ी मशक्क़त से
इकट्ठा किये थे नज़्म ने फ़िर से
मुुहब्बत के कुछ अक्षर
ख़ामोशी का मौसम क्या गुज़रा
सब के सब पत्थर हो गए

8. नुकीले शब्द

सुनो !
अब रुख़ मोड़ लो अपना
टूटने के बाद बड़े नुकीले हो गए हैं
मेरे शब्द
कहीं तुम्हें ये चुभ न जाएं

9. इम्तहां

मैं रटती रही
प्रेम की परिभाषायें
जिंदगी ने दर्द का
इम्तहां ले लिया

10. उम्र के पत्ते

जब से नज़्म
पोर पोर मुस्कुराने लगी है
इक कुँवारी सी चाहत
राज़ दिल के बताने लगी है
चलो न कहीं से
चुरा लाएं
उम्रों के फिर वही
जवां पत्ते

11. इश्क़ की मिटटी

जब से तुमने
इश्क़ की मिटटी छिड़काई है
मेरी नज़्मों के मरे हुए शब्द
ज़िंदा होने लगे हैं
सुनो !
तुम आना आज़ की रात
हम मिलकर इन्हें
क़ब्रों से आज़ाद करेंगे

12. टूटता विश्वास

बड़ा मासूम सा यकीं था
नज़्म को अपने कहे शब्दों पर
मुस्कुराकर मुहब्बत भर देगी हामी
अब तेरी मेरी क़लम सांझी ही तो है
पगली दिनभर
अपने शब्दों को छिपाये
ख़ुद से ही नज़रें चुराती रही

13. रूह

आज़ रात खोल देना
मुहब्बत की क़ब्रों के सब द्वार
इक बेकल सी रूह जिस्म के
बारग़ाह से आज़ाद हुई है

14. इश्क़ का बीज

सुना था
बाँझ हुई मिट्टी में
कोई पौधा नहीं उगा करता
ये कौन बो गया इश्क़ का बीज
कि मिट्टी ने भी अपनी
जात बदल ली

15. मुहब्बत

रात जब
मुहब्बत के अक्षर उगे
चाँद बहुत देर
झील के पानी में नहाता रहा
नज़्म हौले हौले मुस्कुराती रही
इक हसीं सा ख़्याल
आता जाता रहा

16. पैरहन

ये कौन
दे गया दस्तक
बरसों से बंद दरवाजे पे
कि ज़िन्दगी
मुहब्बत के पैरहन
सीने लगी है

17. दीया

ये कौन जला गया
मेरी क़ब्र पर दीया आज़
कि मुहब्बत की कोख़ से फ़िर
ज़िन्दगी ने जन्म लिया है

18. सवाल

यक़ीनन
बेंधते तो होंगे
तुम्हें मेरे सवाल
ये और बात है कि हर बार
तयशुदा जवाबों से तुम
खामोश कर देते हो मेरी जुबाँ!

19. जीत

वे कोई
कमजोर से पल रहे होंगे
जब तुम्हारे तल्खियों भरे शब्द
जीत का जश्न मना मुस्कुरा उठे थे
वर्ना आज तक जीतती आई है
मेरी ही ख़ामोशी  !!

20. रिश्ते

ये रिश्ते जो अब किसी
ज़ख्म की तरह कराहने लगे हैं
इससे पहले कि ये दम तोड़ दें
आओ इन्हें कांधा देकर उतार दें
और मुक्त कर दें बंधनों से

21. आह

दर्द हैरान था
ये किसने आह भरी है
जो मेरी कब्र पर से आज
फिर ये रेत उड़ी है

22. इश्क़

सीने में ये कैसा
फिर इश्क़ सा जला है
कि इस आग़ की लपट से
आज मेरा दुपट्टा जला है

23. हूक

उम्र खामोश थी
ये किसने बाँध दिए हैं
मेरे पैरों में दर्द के घुंघरू
कि रात की छाती में
यूँ हूक उठी है

24. ज़िंदगी

ये ज़िंदगी बस
तर्जुमा करती रही दर्दों का
और ज़ख्म मेरे
दास्तां लिखते रहे

25. दुआ

अय उम्मीदो !
अभी मत बाँधो रस्सी गले में
अभी तो मेरे हाथ
दुआ में उठे हैं

26. ख़ामोशी

ये किसने लिख दिया
मेरी देह की मिटटी का नसीब
कि नज़्म आज यूँ
खामोश हुए बैठी है

27. यादें

दिल की बस्ती के
बरसों पड़े बंद कमरों से
उतार लाई हूँ कुछ तस्वीरें यादों की
आज सहलाऊँगी ज़ख्मों को रात भर
दर्द फिर हरा होगा

28. कोरा सफ़्हा

बहुत कुछ
लिख लेने के बाद भी
कोरा का कोरा ही रहा
दिल का सफ़्हा
ये कौन सी विधा है
जहाँ शब्द होकर भी
नहीं होते !!

29. तुम्हारा स्पर्श

आज बरसों बाद
खोल कर बक्सा
छुआ जो दुपट्टे को
ज़िंदा था उसमें आज भी
तुम्हारा स्पर्श

30. सच

लौट आता है
हर बार शर्मिंदा होकर
दरवाजे से ही
ख़ामोशी की जुबां में लिपटा
मेरा सच

31. नासूर

छिलते-छिलते
ज़ख्म नासूर बन गया है
तुमने गाड़े भी तो थे
गहरे तक धँसने वाले
तीखे शब्द

32. ज़ख्म

मेरे पास
लिखने को
आखिरी पन्ना था
और तुम्हारे पास
शब्दों के बेहिसाब घाव
मैंने सारे ज़ख्म
दिल में उतार लिए

33. आँखों की भाषा

तुमने कभी
पढ़ा ही नहीं
मेरे अनकहे शब्दों में
छिपा प्रेम
पता नहीं कसूर
मेरी आँखों का था
या तुम ही नहीं जान पाए कभी
मेरी आँखों की भाषा

34. सीवन

बरसों बाद भी
नहीं उधड़ी है
चुप्पी की सीवन
बाबुल तेरे घर से
विदा होते वक़्त जो मैंने
सिल लिए थे अपने होंठ

35. खाली हथेलियाँ

तुम्हीं से चलकर
तुम्हीं तक खत्म होते हैं
मुहब्बत के सारे अक्षर
ये और बात है
सहेजने की कोशिश में
हर बार खाली रहीं
मेरी हथेलियाँ

36. रिश्ते

साथ रहने से किसी के संग
रिश्ते नहीं बनते
मुहब्बत खुद ब खुद बाँध लेती है
खुद को इक हसीं से
रिश्तों में

37. परिभाषा

मैं रटती रही
परिभाषाएं प्रेम की
जिंदगी दर्द का इम्तहाँ
लेती रही

38. वेश्या

कितने ही शब्द
रहस्य बने हुए हैं उसकी देह पर
जिन्हें वह भीतर ही भीतर
चबा जाती है अश्कों के साथ

39. ज़िन्दगी

पन्ने पलटने से
नहीं मिल जाती ज़िन्दगी
वह तो रुमाल पर काढ़ा एक फूल है
जो प्रेम करने वालों को
मिलता है नसीब से

40. उडारी

उड़ान की उम्मीद से
फड़फड़ाये थे अपने पंख मैंने
पर उड़ान जितनी पास थी
आसमान उतना ही दूर
अधकटे पंख उम्र के इस मोड़ पर
उडारी न भर सके

41. सिले होंठ

सिले हुए होंठ
नमी तो ले आते हैं आँखों में
पर तुम्हारा नाम
कभी होंठों से बाहर
नहीं आने देते