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सपनों के महल / मंजुश्री गुप्ता

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बार बार बनाती हूँ
सपनों के महल
मैं
बालू की भीत पर
यथार्थ की लहरें उद्दाम
टकराती हैं बार बार
ढह जाता है महल
लहराता है
आंसुओं का
खारा समंदर
क्षितिज पर
डूब जाते हैं सपने
फिर से
उगने के लिए