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देव / अजित सिंह तोमर

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हो सके तो सम्बोधनों के
षडयंत्रो से बचना
पति को देव कहने से बचना

देव आदर्श भरी कल्पना है
मिथको से घिरी एक अपवंचना है
मनुष्य जब देवता बताया जाता है
फिर वो कर देता है इनकार
मनुष्य को मनुष्य मानने से
समझने लगता है खुद को चमत्कारी

प्रेम की चासनी में लिपटे
बहुत से चमत्कार तुम समझ न पाओगी
आत्म गौरव को देवत्व के समक्ष बंधक पाओगी
साथी के तौर पर कोशिश करना
तुम्हारा साथी मनुष्य रहे
और तुम्हारा साथ उसे बनाए
और एक बेहतर मनुष्य

यदि तुमनें एक बार उसे बना दिया देव
फिर वो भूल जाएगा कमजोरियों पर माफी माँगना
सीख लेगा वो अधिपत्य घोषित करना
एकदिन तुम्हें बता देगा तुम्हारी ही नजरों में
सबसे निष्प्रयोज्य
घोषित कर देगा अपनी कृपा का घोषणापत्र

मत मानना पुराणों के शब्द विलास
गढ़ना अपने सह अस्तित्व का शब्दकोश
समझना और बरतना बराबरी के सुख दुःख
मत कर देना खुद को प्रस्तुत
देवता के स्वघोषित साम्राज्य में दास की तरह

प्रेम में एक बार देव कहोगी
दुःख में भूल जाओगी असल के देवता को भी
दरअसल
देवता कोई नही होता है
असल के देवताओं के भी अनन्त किस्से है छल के

पति को देव बनाना
उस छल को निमंत्रित करना है
जिसकी शिकायत किसी से नही कर सकोगी
और यदि करोगी भी
सारी सलाह और समायोजन तुम्हारे हिस्से आएगी
दब जाओगी जिसके बोझ तले असमय

पति का एक नाम है
उसी नाम से पुकारना
देव कहने से बैचेन होगा असल का पति
खुश होगा देव बनने को बैचेन पति

बस यह सूत्र रखना याद
और तय करना प्रिय पति का संबोधन
बतौर माँ यही
आख़िरी सलाह है मेरी।