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डरावने मौसम की प्रतीक्षा / कुमार कृष्ण

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जिन्दा रहने के लिए
माँगती है ज़मीन पूरा आकाश
नीले चेहरे को जिसके छुपा लिया
गाँव के ताल ने।

क्या हो गया
तालाब पर फैली टहनियों को
मवेशियों की जीभ का दर्द पीते
तालाब नहीं तीर्थ है यह
मवेशियों का कच्चा मांस खाने वाले
गिद्धों का
कैद है जहाँ
मेरे बचपन का आकाश।

ब्रश की तरह खड़े
इसी की बगल में
अमृता शेरगिल, शोभासिंह के
चीड़ देवदार
बनाते आकाश पर
ज़मीन की तस्वीरें
मैंने सुना
बहुत कम रह गई है अब
धूप बेचने वाले
सौदागर की उम्र
उसका सिकुड़ता शरीर नहीं बाँट सकता
बर्फ और अँधेरे के सिवा
कुछ और बनती जा रही
बर्फ की चट्टान
मेरे गाँव की ज़मीन।

क्या बात है कि बोना चाहता हूँ
ज़मीन की काली तस्वीरें
दादा के बंजर खेतों में।

बरसाती नदी बखूबी समझती है
डंगरों की भाषा
जमाने की चाल
बचपन में सच बोलने के लिए
राजा ने दादा से
कटवा ली थी जीभ।

बैल को बैल नहीं
नाम से पुकारते रहे दादा
पढ़ाते रहे उम्र भर पशुओं को
गाँव का इतिहास
उखड़े नहीं अब तक
खेत में लगाए दादा के ओड्डे
कामयाब रहा चाहे बरसाती पानी
मेंड़ तोड़ने में हर साल।
रखते हुए शहरी सड़कों का हिसाब

मील के पत्थर
नापते हैं हर रोज
पूरा देश
नहीं नाप सकीं जंगली पगडंडियाँ
मेरे गाँव के अनहोनेपन को
बचपन में जिसे घेर लिया था
पहाड़ों ने।

पहाड़
पहाड़ों के अन्दर पहाड़
नीली गुफा
बौने अँधेरे
बूढ़ा राक्षस
परिकथाएँ।

टूटती आधी रात
नींद की सुन्न चट्टान
धँसती नजर अँधेरी गुफा में
सुबह की प्रतीक्षा में
खूँटों से बँधे डंगर
चबाते हैं रात
पसरा है बाहर थके खलिहान-सा
स्याह तालाब
चारों ओर सड़ रहे वर्षो से
फूल बनने को आकाश के बीज
नहीं खिला कोई फूल
इस तालाब में।

रसोई की मटियाली दीवार पर
मिटाती रही माँ हर त्योहार
दादी परदादी के हाथ के निशान
जलाती रही राख के डण्डे
नये त्योहार की प्रतीक्षा में।

गाँव की खण्डहर बावड़ी पर
करता रहा मैं इन्तजार
डरावने मौसम का
जिसका संवाद दिया मुझे
रात का गीत गाने वाले पक्षी ने
सूखती
जमती
भरती
बावड़ी के करीब
सुनाती रही माँ
बुजुर्ग पेड़ों, नीले दायरों, बूढ़े राक्षसों
बावड़ी के साँपों की रहस्यात्मक कहानियाँ।